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मेवाड़ की प्राचीन जैन चित्रांकन-परम्परा
353 कहते हैं। चित्तौड़ में पाक्षिकवृत्ति की वि. सं. १३०६ (१२५२ ई.) में प्रतिलिपि की गई, जो जैसलमेर संग्रहालय में संग्रहीत है। इसमें श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि ही सचित्र है।२ ___ इसके चित्रों में मेवाड़ की प्राचीन परम्परा एवं बाद में आने वाली चित्रण विशेषताओं का उचित समावेश है। श्रावक प्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि ग्रन्थ में चित्र के दायें-बायें तथा मध्य भाग में चित्र बने हैं। इसकी पुष्पिका में आलेख चित्रों के साथ ही हैं। इस ग्रन्थ में कुल ६ चित्र हैं, जो बोस्टन संग्रहालय अमेरिका में सुरक्षित हैं। इन चित्रों की विशेषताएँ तत्कालीन चित्रण पद्धति तथा परम्परा के अनुसार हैं। नारी चित्रों एवं अलंकरण का इनमें आकर्षक संयोग है। उक्त शिलोत्कीर्ण एवं सचित्र ग्रन्थ में सवा चश्म चेहरे, गरूड़ नासिका, परवल जैसी आँख, घुमावदार लम्बी उंगलियाँ, लाल-पीले रंग का प्राचुर्य, गुंडीदार जन समुदाय, चौकड़ीदार अलंकरण का बाहुल्य, चेहरों की जकड़न आदि महत्वपूर्ण है। इन चित्रों में रंग योजना भी चमकीली है। पीला, हरा व लाल रंग का मुख्य प्रयोग मिलता है। रंगों, रेखाओं व स्थान के उचित संयोजन का यह उत्कृष्ट नमूना है, जिसमें गतिपूर्ण रेखाओं व ज्यामितीय सरल रूपों का प्रयोग है। ये संस्कार एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अवतरित होते रहे। साथ ही इन चित्रकारों ने सामाजिक तत्वों, रहन-सहन आदि का अच्छा अंकन किया है, जिस पर साराभाई नवाब ने लिखा" है कि तेरहवीं सदी में मेवाड़ की स्त्रियाँ कैसा पहनावा पहनती थीं, यह इन चित्रों में अंकित है। इस पंक्ति से इस महत्वपूर्ण सचित्र ग्रन्थ में सामाजिक वेशभूषा के अंकन की कार्यकुशलता भली-भाँति सिद्ध हो जाती है। ___ गंगरार ग्राम में मिले कुछ शिलोत्कीर्ण रेखाचित्र वि. सं. १३७५-७६ के हैं। इनमें दिगम्बर साधुओं की तीन आकृतियाँ हैं तथा उनके नीचे शिलालेख हैं। इन आकृतियों की अपनी निजी विशेषताएँ हैं। ये आकृतियाँ एक चश्मी नहीं हैं, ना ही इनमें अपभ्रंश शैली जैसे वस्त्र हैं। अतः यह मानना होगा कि यह वहाँ की स्थानीय शैली के अनुरूप साधुओं की आकृतियाँ रही होंगी। ___ अलाउद्दीन के आक्रमण के पश्चात् उत्तरी भारत में जो विकास हुआ, उनमें गुजरात व मालवा के नये राज्यों की स्थापना उल्लेखनीय है। जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, मेवाड़ के शासक भी अलाउद्दीन के आक्रमण के बाद अधिक शक्ति सम्पन्न हुए। महाराणा लाखा, मोकल एवं कुम्मा का काल आंतरिक शान्ति का काल था। इस काल में कई महत्वपूर्ण कलाकृतियों का निर्माण हुआ। मेवाड़ की चित्रकला का दूसरा सचित्र ग्रन्थ कल्पसूत्र वि. सं. १४७५ (१४१८ ई.) है, जो सोमेश्वर ग्राम गोड़वाड़ में अंकित किया गया। यह ग्रन्थ अनूप संस्कृत लाइब्रेरी, बीकानेर मे सुरक्षित है। ७६ पत्रों की इस प्रति में ७३ पत्रों तक तो कल्पसूत्र एवं कालिकाचार्य कथा ८८ श्लोकों की है। इस कथा में ३ चित्र हैं। कल्पसूत्र के १६ पृष्ठों पर चित्र है। इनमें से पत्रांक ६ और ३२ के बोर्डर पर भी लघु चित्र हैं। पत्रांक २६ में दो चित्र हैं। चित्रों की पृष्ठभूमि में लाल, हल्दिया, बैंगनी व मूंगे रंग का प्रयोग है तथा ग्रन्थ के अन्त में लिखी पुष्षिका में तत्कालीन कला-परम्परा की भी उचित पुष्टि होती है। ज्ञातव्य है कि उस काल में गोड़वाड़ मेवाड़ का ही भाग था, जो महाराणा अरिसिंह (१७६१-७३ ई.) के राज्यकाल में मारवाड़ को दे दिया गया। इसके अंतिम लेख से स्पष्ट है कि जैसलमेर में जयसुन्दर शिष्य तिलकरंग की पंचमी तप के उद्यापन में यह प्रति भेंट की गई थी। ___ मेवाड़ की चित्रकला का अन्य सचित्र ग्रन्थ मोकल के राज्यकाल (१४२१-३३ ई.) का देलवाड़ा में चित्रित सुपासनाहचरियं वि. सं. १४८९ है। यह ग्रन्थ देलवाड़ा में मुनि हीरानन्द द्वारा अंकित किया गया। मुनि हीरानन्द द्वारा चित्रित यह ग्रन्थ मेवाड़ की चित्रण-परम्परा में महत्वपूर्ण स्थान रखता है, जो इससे पूर्व श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रचूर्णि की कलात्मक विशेषताओं से एक कदम आगे है। इनके द्वारा पृष्ठभूमि का अंकन हींगलू के लाल रंग से किया गया है। स्त्रियों का लंहगा नीला, कंचुकी हरी, ओढ़नी हल्के गुलाबी रंग से तथा जैन साधुओं के परिधान श्वेत और पात्र श्याम
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