Book Title: Sumati Jnana
Author(s): Shivkant Dwivedi, Navneet Jain
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 385
________________ 360 Sumati-Jnana यमराज का वाहन, वराह एवं कूर्म विष्णु के अवतार, शंख विष्णु का एक आयुध, सर्प शिव का कंठ आभूषण व स्वयं नागदेव के रूप में पूज्य और सिंह दुर्गा पार्वती का वाहन । तीर्थंकरों के लांछनों को जैनाचार्यों ने हिन्दू धर्म में मान्यता प्राप्त जीव-जन्तुओं, प्रतीकों आदि के साथ समाहित किया जिससे हिन्दू समाज में उनके धर्म का कमी प्रतिरोध नहीं हुआ। यदि तीर्थकरों के शासनदेवताओं पर दृष्टि डाली जाये तो हिन्दू समाज में जो देवी-देवता मान्य थे, उनमें से ही अधिकांश को जैन तीर्थंकरों के शासन देवताओं के रूप में स्थान दिया गया। कुमार कार्तिकेय हैं तो उन्हें षड्मुख भी कहा गया। गंधर्व, किन्नर, कुबेर को हिन्दू धर्म में मान्यता प्राप्त थी तो ये जैनों के शासन देवता भी हैं। इसी प्रकार महाकाली, गौरी, चामुण्डा, अम्बिका आदि देवियों को जैन तीर्थंकरों के शासन देवी के रूप में मान्यता मिली। जैन देवमण्डल का जब स्वरूप निर्धारित हुआ तो उसके अंतर्गत हिन्दू धर्म के अनेक देवी-देवताओं को स्थान दिया गया। कृष्ण, बलराम, लक्ष्मी, सरस्वती, इन्द्र, यक्ष, विद्यादेवियां इसमें समाहित हुए। यही नहीं राम, नवग्रह, अष्टदिक्पाल तथा चौसठ योगिनियां भी जैन देवमण्डल में स्थान प्राप्त कर सकीं। गणेश हिन्दू देवकुल के साथ-साथ जैन धर्म के भी लोकप्रिय देव हैं। जैनाचार्यों ने तीर्थंकरों की ध्यान की कायोत्सर्ग एवं पद्मासन मुद्रा में मूर्तियों का निर्माण किया और उनके परिकर में हिन्दू धर्म से ग्रहित देवी-देवताओं का स्थान दिया। इससे एक महत्वपूर्ण मन्तवय हल हुआ। तीर्थकर किसी भी तरह का भौतिक आशीर्वाद देने में असमर्थ थे किन्तु इसकी पूर्ति हिन्दू धर्मों के परिकर में निरूपित देवी-देवताओं ने की। चौथी-पांचवी शती ई. पू. में प्रवृत्तिमार्गी परम्परा ने अपनी जड़े मजबूत करना प्रारंभ कर दिया जिससे निवृत्तिमार्गी धर्म पर संकट उत्पन्न हो गया। जैनाचार्यों ने इस परिस्थितियों में बुद्धिमत्ता से कार्य किया जिसके कारण उनकी अपनी एक स्वतंत्र पहचान बनीं। उन्होनें अपनी वीतरागता और निवृत्तिमार्गी आदर्शों को सुरक्षित रखने के लिए हिन्दू देवमण्डल की उपासना पद्धति एवं कर्मकाण्ड के तन्त्र को अपनी परम्परा के अनुसार स्वीकृत कर लिया। यही नहीं वर्णाश्रम एवं संस्कार व्यवस्था का भी जैनीकरण कर उसे आत्मसात कर लिया। अपने मंदिरों के निर्माण में जैन धर्मावलंबियों ने सामायिक परिस्थितियों के साथ सामंजस्य स्थापित किया। खजुराहों में जहां हिन्दू मंदिर राज्याश्रय में निर्मित हो रह थे वहीं जैन मंदिर वणिक वर्ग के आश्रय में बन रहे थे। दोनों ही धर्मों के मंदिरों की भित्तियों पर मैथुन दृश्यों का अंकन करवाया गया। इसी प्रकार के अंकन राजस्थान एवं दक्षिण भारत के दिगम्बर जैन मंदिरों पर भी प्राप्त होते हैं। इसकी पुष्टि जैन ग्रन्थों से भी होती है। आचार्य जिनसेन ने हरिवंश पुराण में लिखा है कि रति एंव कामदेव की मूर्तियां मंदिर की बाह्य भित्तियों पर आकर्षण हेतु अंकित करनी चाहिये। मंदिर की बाह्य भित्तियों को वेश्या के समान होना चाहिए जिससे वह जनसामान्य को अपनी ओर आकर्षित कर सके। ऐसे अंकनों की स्वीकृति युगबोध और सामंजस्य की दृष्टि का ही परिणाम थी। हिन्दू संस्कृति में सोलह संस्कार मान्य थे। यद्यपि कुछ ग्रन्थों में इनकी संख्या चालीस तक दी गयी है, पर सोलह संस्कार ही अधिक मान्य थे। जैन संस्कृति में भी संस्कारों को विशेष महत्व दिया गया और ५३ संस्कारों को मान्यता मिली जो लगभग हिन्दू संस्कारों के समान ही हैं। यह भी कहा गया कि भव्य पुरूषों को सदा उनका पालन करना चाहिये। सामंजस्य के परिणामस्वरूप ही जैनाचार्यों ने पौराणिक महाकाव्यों में राम, कृष्ण जैसे राष्ट्रीय चरित्रों को महत्व दिया। जैन कवि रविषेण ने संस्कृत में पद्मपुराण (वि. सं. ७३४) नामक एक जैन महकाव्य लिखा जिसमें आठवें बलदेव पद्म अर्थात् राम, आठवें वासुदेव अर्थात् लक्ष्मण, आठवें प्रति वासुदेव अर्थात् रावण का वर्णन है। यह पुराण इन सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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