Book Title: Sumati Jnana
Author(s): Shivkant Dwivedi, Navneet Jain
Publisher: Shantisagar Chhani Granthamala

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Page 398
________________ जैन धर्म में गृहस्थ नारीः एक ऐतिहासिक अध्ययन 373 १५. पाण्डवपुराण,७/२४८, शुभचन्द्र, सम्पादक-ए. एन. उपाध्ये तथा हीरालाल जैन, शोलापुर, १६५४| १६. तुलनीय-मिश्र, देवी प्रसाद, पूर्वोक्त, पृ. १०६ । १७. औपपातिक सूत्र ३८, पृ. १६७-६८, टीका अभयदेव, द्वि. सं. वि. सं. १६१४; जैन, जगदीश चन्द्र, पूर्वोक्त, पृ. २५०। १८. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ३. ६७, टीका, शांतिचन्द्र, बम्बई, १६२०/ १६. उत्तराध्ययन टीका-१८, पृ. २४७ अ। २०. ज्ञातृधर्मकथा, ८; जैन, जगदीश चन्द्र, पूर्वोक्त, पृ. २५०, श्वेतांबर परम्परा के अनुसार (कल्पसूत्र टीका २, पृ. ३२, अ. ४२-अ) स्त्रियों द्वारा निर्वाण प्राप्त करने को दस आश्चर्यों में गिना जाता है, दिगम्बरों के अनुसार मल्लि का मल्लिकुमार माना गया है और इस परम्परा में स्त्री मुक्ति का निषेध है। २१. वृहत्कल्पभाष्य, ४. ४३३४-४५ | २२. महापुराण, ७२/६२। २३. पद्मपुराण, ७/१३६। २४. हरिवंश पुराण, १६/१०, जिनसेन कृत, सम्पादित-पन्नालाल जैन, काशी, १६६२; पद्मपुराण, १५/१७३। २५. पद्मपुराण, ७८/६/ २६. महापुराण, १७/१६६; पद्मपुराण, ८/१४७। २७. महापुराण, ४७/२६६; पाण्डवपुराण, १७/२६३; तुलनीय-मिश्र, देवी प्रसाद, पूर्वोक्त, पृ. १०६ । २८. महापुराण,.१२/१२। २६. ज्ञातृधर्मकथा-१, पृ. १३, १६, २५ व १७६ । ३०. उत्तराध्ययन सूत्र-१६) ३१. विपाकसूत्र ६ पृ. ५४। ३२. स्थानांग, ३.१३५, टीका, अभयदेव, अहमदाबाद, १६३७ । ३३. पद्मपुराण, १०१/३७, ८०/७०; महापुराण, १३/३०। ३४. महापुराण, ५६/२०, ६८/१७०। ३५. ज्ञातधर्मकथा-२, पृ. ४६: आवश्यक चूर्णी, पृ. २६४; अवदान शतक, १, ३, पृ. १४; जैन आगम, २३६ । ३६. पदमपुराण, १/७२-७३। ३७. आवश्यक चूर्णी, जिनदास गणि, रतलाम, १६२८, पृ. १३५, २४३; उत्तराध्ययन टीका-२३, पृ. २८८ ज्ञातृधर्मकथा–१, २० आदि। ३८. कल्पसूत्र टीका, समयसुन्दर गणि, बम्बई, १६३६ ३-३२.४६; आवश्यक चूर्णी, पृ. २६३ आदि। ३६ महापुराण, ६/६३। ४०. पद्मपुराण, ८/७/ ४१. महापुराण, १६/६८, ४३/२३८; तुलनीय–मिश्र, देवी प्रसाद, पूर्वोक्त, पृ. ११91 ४२. मत्स्यपुराण, १५४/१५७, कलकत्ता, १६५४; तुलनीय–मिश्र, देवी प्रसाद, पूर्वोक्त, पृ. १०६ । ४३. महापुराण, १६/१०५-११७, तुलनीय रामायण, गोरखपुर, १६६७, पृ. ११२ । ४४. जैन, जगदीश चन्द्र, पूर्वोक्त, पृ. २५४ | ४५. ज्ञातृधर्मकथा-१, पृ. २३ । ४६. ज्ञातृधर्मकथा–१४, पृ. १४८, अन्तःकृद्दशा ३, पृ. १६, संपादक-पी. एल. वैद्य, पूना, १६३२; टीका अभयदेव, अहमदाबाद, १६३२; उत्तराध्ययटीका-६, पृ. १४१ अ, १८८ अ, १६२ अ। मनु के काल में अर्न्तजातीय विवाह में आजकल की अपेक्षा बहुत अधिक लचीलापन था। अनुलोम विवाह ई. सन् आठवीं तक असाधारण नहीं हुए थे, अल्तेकर, द पोजीशन ऑफ वीमेन इन हिन्दू सिविलाइजेशन, बनारस, १६३८. पृ. ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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