________________
जैन आगम साहित्य में विवाह
327
है और तत्पश्चात् उसके कन्या रत्न को सौंपा जाता है । ' विवाह की इस विधि में कन्याओं की स्थिति पर्याप्त संतोषजनक थी। विवाहोत्तर काल में नववधू को अपने पितृ पक्ष से वर गृह लाने पर समस्त संबंधियों को भोज ( आहेण) दिया जाता था और जब उसे वर -गृह से पितृ - गृह में लाया जाता था, जब जिस भोज का आयोजन होता था, उसे पहेण कहते थे ।' यद्यपि माता-पिता द्वारा तय किये जाने वाले इन वैवाहिक संबंधों की आधारशिला पर्याप्त कमजोर साबित होती थी। इसका प्रधान कारण था कि इस प्रकार के विवाह संबंध संरक्षक की इच्छा से तय होने के कारण परस्पर भावनात्मक संज्ञा से उदासीन होते थे। अतः दाम्पत्य जीवन में दरार पड़ने की संभावना स्वाभाविक थी। जैन ग्रन्थों में हमें तमाम ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं, जब पुत्रों ने अपनी विवाहिता को घर-बार को छोड़कर जैन दीक्षा ग्रहण कर लिया । " अन्य प्रचलित विवाह पद्धति
वैवाहिक पद्धतियों के अतिरिक्त जैन ग्रन्थों में कहीं-कहीं विवाह संबंधी अन्य उल्लेख भी प्राप्त होते हैं। यद्यपि अल्प प्रचलित होते हुए भी इन उदाहरणों से तत्कालीन समाज में व्याप्त कतिपय सामाजिक गतिविधियों का ज्ञान होता है। कभी-कभी च्यापारार्थ विदेशी आगन्तुक (व्यापारी) के गुणों से आकृष्ट होकर कन्या का पिता उसके साथ अपनी कन्या का विवाह कर देता था। इसके बाद वर कुछ दिनों तक वहां रहकर उसके साथ भोगों का सेवन करता और फिर उसे लेकर स्वदेश लौट जाता था । कभी-कभी देवताओं की प्रेरणा से श्रेष्ठ एवं कुलीन कन्याएं वर को सौंप दी जाती थीं। इस प्रकार से सौंपे जाने पर वह व्यक्ति अपने आप को परम सौभाग्यशाली मानता था।
अमर्यादित विवाह
इसके साथ ही हमें जैनागमों के काल में कुछ अति गर्हित वैवाहिक संदर्भों की प्राप्ति होती है जिसको अन्यन्त निंदासूचक माना जा सकता है। इसके अंतर्गत व्यक्ति विवाह हेतु कन्या का अपहरण कर अपनी कामना पूर्ति करने का प्रयास करता था। ज्ञातृधर्मकथांग सूत्र में चिल्गत नामक दस्यु सरदार द्वारा सुषमा (कन्या) का अपहरण किये जाने का उल्लेख इसका प्रमाण है" जिसको हिन्दुओं के पैशाच विवाह के समकक्ष रखा जा सकता है। इस क्षेत्र में हमें कुछ ऐसे भी उदाहरण मिलते हैं, जब मनुष्य कामभोगों के सेवन में भाई और बहन के संबंध की गरिमा को ताक पर रख दिया जाता था, जिसे जैनाचार्यों ने अत्यन्त निन्दित" माना है। उपासकदशांगसूत्र मे इव्वरिक परिगृहिता गमन का उल्लेख मिलता है। इव्वरिक का अर्थ उस स्त्री के लिये किया गया है जो अस्थाई अल्पकालिक होती थी । अर्थात् जो स्त्री कुछ समय के लिये किसी पुरूष के साथ रहती है और फिर चली जाती है, पर जितने समय रहती है, उसी की पत्नी के रूप में रहती है और किसी पुरुष के साथ उसका यौन संबंध नहीं रहता, उसे इव्वरिका कहा जाता था। इसके अतिरिक्त इव्वरिका का अर्थ अल्पव्यस्का से भी किया जाता है। तदनुसार छोटी आयु की पत्नी के साथ सहवास करना । ग्रन्थ में इन्हें हीन कामुकता का द्योतक मानकर स्वदार संतोषवत्र के अतिचारों में गिना गया है। २
बहुपत्नी एवं बहुपतित्व प्रथा के उदाहरण
जैन ग्रन्थों में धनी और सम्पन्न व्यक्तियों द्वारा एक से अधिक पत्नियों को रखने का गौरव का अनुभव किया जाता था। राजप्रश्नीय सूत्र में अग्रमहिषी एवं शेषभोगिनी अथवा अकृताभिषेका स्त्रियों का उल्लेख इसे प्रमाणित करता है। तदनिमित्त बहुपत्नी प्रथा अस्तित्व का हमें ज्ञान प्राप्त होता है। इसके अतिरिक्त हमें जैनागमों में महाभारत की प्रमुख पात्र द्रौपदी द्वारा बहुपतित्व प्रथा की विद्यमानता के भी संकेत मिलते हैं। किन्तु इसके अलावा ऐसे प्रमाणों की संख्या शून्य के सापेक्ष है।
परित्यक्त जीवन
कुछेक परिस्थितियों में स्त्रियां पति के द्वारा छोड़ दिये जाने पर पुनर्विवाह भी कर सकती थीं लेकिन पुनर्विवाह की अपेक्षा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org