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जैन धर्म दर्शन में सम्यग्ज्ञानः स्वरूप और महत्व
345 वह ज्ञानावरण के क्षयोपशम या क्षय से प्रकट होने वाली ज्ञान की अवस्थाओं का विवेचन है। ज्ञानावरण कर्म का कार्य आत्मा के इस “ज्ञान' गुण को रोकना या ढ़कना है और इसी ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के तारतम्य से पूर्वोक्त पाँच में से आरमिक चार ज्ञान प्रकट होते हैं। ज्ञानावरण कर्म का सम्पूर्णतया क्षय होने पर निरावरण "केवलज्ञान प्रकट होता है। वस्तुतः जिन तत्वों का श्रद्धान और ज्ञान करके मोक्षमार्ग में जुटा जा सकता है, उन तत्वों का अधिगम ज्ञान से ही संभव है। यही ज्ञान प्रमाण और नय के रूप में अधिगम के उपायों को दो रूप में विभाजित कर देता है। इसलिए तत्वार्थसूत्रकार ने प्रमाणनयैरधिगमः सूत्र कहा।
तत्वार्थसूत्र (प्रथम अध्याय) में आचार्य उमास्वामी (ई. प्रथम शती) ने प्रमाण के अंतर्गत ज्ञान की चर्चा करते हुए तीन सूत्र प्रस्तुत किये-तत्प्रमाणे, आद्ये परोक्ष, प्रत्यक्षमन्यत् अर्थात् पूर्वोक्त पाँच प्रकार का ज्ञान दो प्रमाण रूप है। प्रथम दो ज्ञान–मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्षप्रमाण हैं, शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण हैं जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना केवल आत्मा की योग्यता से उत्पन्न होता है, वह प्रत्यक्ष कहलाता है और जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होता है, वह परोक्ष है। ___सामान्यतः कुछ लोग यह मानते हैं कि 'ज्ञान' हमें शास्त्रों, शब्दों या किसी गुरूजन या कहीं बाहर से प्राप्त हो जाता है किन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि प्रत्येक जीव (आत्मा) में अनन्त ज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त बल और अनन्त सुख-ये अनन्त-चतुष्टय विद्यमान हैं। किन्तु इन पर आवरण पड़ा हुआ है। अतः ये गुण पूर्णतः प्रकट नहीं होते। आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार (गाथा १६०) में कहा है
सो सळ्याणदरिसी कम्म-रएण णियेण वच्छण्णो।
संसारसमावण्णो ण विजागदि सत्वदो सत्वं।। अर्थात् वह सबको जानने-देखने वाला आत्मा अपने कर्मरूपी रज से आच्छादित हुआ है। इस कारण संसार दशा को प्राप्त हो रहा है और इसीलिए सब पदार्थों का नहीं जान पाता है। किन्तु पुरूषार्थ अर्थात् संयमादि की साधना से जैसे-जैसे आवरण हटता जाता है वैसे-वैसे ये गुण प्रकट होते हैं। इसी तरह ज्ञानावरण कर्म का जैसे-जैसे क्षयोपशम होता है, वैसे-वैसे 'ज्ञान' गुण प्रकट होता जाता है। इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने स्पष्ट लिखा है
सत्यं णाणं ण हवइ जम्हा सत्थं ण याणए किंचि।
तम्हा अण्णं णाणं अण्णं सत्थं जिणा विति।। (समयसार गाथा ३६०) अर्थात् शास्त्र, शब्द आदि ज्ञान नहीं है क्योंकि शास्त्र, शब्दादि कुछ नहीं जानते। इसलिए ज्ञान अन्य है और शास्त्र शब्दादि अन्य हैं-ऐसा जिनेन्द्रदेव जानते (और कहते) हैं। आगे कहा है-चूँकि जीव निरन्तर जानता है, इसलिए ज्ञायक है तथा ज्ञान ज्ञायक से अव्यतिरिक्त अर्थात् अभिन्न है। अतः ज्ञान ही सम्यकदृष्टि है, संयम है, अंग-पूर्व गत सूत्र है, धर्म-अधर्म द्रव्य है। इतना नहीं, वही अर्थात् ज्ञान प्रवज्या अर्थात् दीक्षा है-ऐसा ज्ञानी जन मानते हैं (गाथा ४०३-४०४)। __ज्ञान के इन पाँच भेदों में से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष हैं, क्योंकि ये इन्द्रिय और मन के द्वारा होते हैं। शेष तीन ज्ञान अर्थात् अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान-तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। किन्तु इनमें भी अवधिज्ञान तथा मनःपर्यय-ये दो ज्ञान देशप्रत्यक्ष हैं तथा एक मात्र केवलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है। ___ वस्तुतः जैन दर्शनानुसार ज्ञान जीव से भिन्न नहीं है। जीव चैतन्य स्वरूप है और चेतना ज्ञान-दर्शन स्वरूप है। उस चैतन्य रूप में आत्मा में सब पदार्थों को प्रत्यक्ष अर्थात् इन्द्रियादि की सहायता के बिना ही जानने-देखने की शक्ति सदा काल है। किन्तु अनादिकाल में ज्ञानवरण, दर्शनावरण कर्मों के निमित्त से वह शक्ति व्यक्त नहीं हो पाती। इनके
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