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वैदिक एवं श्रमण संस्कृति में इक्ष्वाकु परम्परा
301 की राजवंश परम्परा प्राचीन और पारम्परिक है। मानव जाति को सुशासन, सुराज्य, सुसंस्कृत, सभ्य और सत्य, तप एवं धर्म आधारित बनाने में इक्ष्वाकु की ऐतिहासिक राज्य–परम्परा विलक्षण रही है। इसीलिए भारतीय इतिहास एवं संस्कृति की वैदिक, पौराणिक एवं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि विनिर्मित करने में इस परम्परकता के साथ पुनर्विश्लेषित करने की आवश्यकता है।
इक्ष्वाकु से संबंधित श्रमण परम्परा भी अन्यन्त प्राचीन तथा समृद्ध है। जैन एवं बौद्ध दोनों की राजवंश परम्परा कोसल के इक्ष्वाकु कुल से ही सम्बद्ध मिलती है। अयोध्या के इक्ष्वाकु कुल-परम्परा में उत्पन्न ऋषभ (प्रथम जैन तीर्थकर) एवं उनके पुत्र भरत से ही भारत की आभिधानिकता सम्बद्ध की जाती है। जैन परम्परा में इसकी स्वीकृति है कि इक्ष्वाकुवंशी ऋषभ के पुत्र भरत के नाम पर यह देश 'भारत' कहलाया। इसकी पुष्टि पुराणों यथा-विष्णु, वायु, ब्रह्माण्ड, भागवत, मार्कण्डेय, गरूड़ से भी होती है। वाल्मीकि रामायण में भी कहा गया है कि (श्रीराम के परम धाम के पश्चात) रमणीय अयोध्या पुरी भी बहुत वर्षों तक सूनी पड़ी रहेगी। फिर राजा ऋषम के समय वह आबाद होगी। जैनों के प्राचीनतम आगम साहित्य जैसे-स्थानांग, ज्ञाताधर्मकथा, कल्पसूत्र, आवश्यकनियुक्ति, कल्पसूत्रवृत्ति एवं नियुक्ति, वृहतकल्पभाष्य आदि में इक्खाग (इक्ष्वाकु), इक्खागभूमि अयोज्झा (इक्ष्वाकुभूमि अयोध्या). इक्खागकुल (इक्ष्वाकुकुल), इक्खागवंस (इक्ष्वाकुवंश) की व्यापक चर्चाएँ हैं।" इसी प्रसंग में ऋषभ (उसम) द्वारा शक्क (इन्द्र) से इक्षु (गन्ना) प्राप्त करने के कारण वंश के इक्ष्वाकु नामकरण की भी चर्चा है। इन विवरणे के आधार पर जैनों की इक्ष्वाकु परम्परा का ज्ञान होता है। इतना ही नहीं प्रथम पाँच तीर्थंकरों ऋषभनाथ, अजितनाथ, सम्भवनाथ, अभिनन्दननाथ, सुमतिनाथ; ग्यारहवें श्रेयांसनाथ तथा चौदहवें अनन्तनाथ का जन्म इक्ष्वाकुकुल में ही बताया गया है। वैशाली के लिच्छविकुल में उत्पन्न चौबीसवें तीर्थकर का भी संबंध इक्ष्वाकुओं से था क्योंकि वज्जिसंघ में सम्मिलित आठ गणतंत्रों 'अट्ठकुलिक (वज्जि, लिच्छवि, विदेह, ज्ञातृक, उग्र, भोग, कौरव तथा ऐक्ष्वाकु) में वैशाली के ऐक्ष्वाकु भी परिगणित हैं। ऐक्ष्वाकु विदेह का प्राचीन राजवंश था जिसकी स्थापना इक्ष्वाकु के पुत्र निमि ने की थी। इसीलिए जैन तीर्थंकरों की राजवंशीय परम्परा भी इक्ष्वाकुओं से ही सम्बद्ध रही है। इस परम्परा का उत्स कोसल ही रहा है। इस प्रकार यह भासित होता है कि जैन परम्परा इक्ष्वाकु परम्परा से ही प्रवर्धित हुई। इस पारस्परिक आदान-प्रदान का व्यवस्थित अनुक्रम एवं तिथिक्रम तैयार किया जा सकता है। इस पृष्ठभूमि से दोनों परम्पराओं की राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक एवं दार्शनिक पृष्ठभूमि महत्त्वांकित होती है। __जैनों की तरह ही बौद्धों की इक्ष्वाकु परम्परा समाद्रित रही है। बौद्धों के प्राचीनतम पालि साहित्य में इक्ष्वाकु ('ओक्काक' पालि) की चर्चा है। छठी शताब्दी ईसा पूर्व के गणराज्यों कपिलवस्तु के शाक्य, रामग्राम के कोलिय, कुसिनारा एवं पावा के मल्ल, पिप्पलिवन के मोरिय आदि को प्रत्यक्ष रूप से इक्ष्वाकु कुल से सम्बद्ध बताया गया है। पालिग्रन्थ शाक्यों को सूर्यवंशी इक्ष्वाकु का वंशज निरूपित करते हैं। इनमें कहा गया है कि 'इक्ष्वाकु द्वारा निष्कासित उनकी संतानों ने हिमालय की आधित्यका में कपिल मुनि के आश्रम के पास कपिलवस्तु की स्थापना की। जाति एवं रक्त की शुद्धता को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए उन्होनें अपनी बहनों से विवाह कर लिया और ज्येष्ठ बहन को राजमाता का पद दिया। उनके सफल जीवनयापन (शाक्यता) के विषय में सुनकर इक्ष्वाकु ने आहृलादित स्वर में कहा-अहो ! कुमार शाक्य हैं। महाशाक्य हैं, हे कुमार ! शाक्य' अमिधान के औचित्य को प्रदर्शित करने वाली इस कथा में ऐतिहासिक तथ्य कितना है, यद्यपि पूर्णरूप से बता पाना संभव नहीं है, किन्तु इससे इतना संकेत अवश्य मिलता है कि शाक्य मूलतः इक्ष्वाकुवंशीय थे। महावंश में शाक्यों के वंशक्रम का जो विवरण उपलब्ध होता है उसके अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय जयसेन की दो संतानें-सिंहहनु एवं यशोधरा थीं। सिंहहनु का विवाह देवदह के शाक्य राजा की कन्या
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