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वैदिक एवं श्रमण संस्कृति में इक्ष्वाकु परम्परा
305 इस प्रकार शिल्पगत प्रतीकों में चक्र एवं स्तूप की प्रतीकात्मकता चक्रवर्तित्व एवं बुद्धत्व की रूपात्मक अभिव्यक्तियाँ हैं। इन प्रतीकों के माध्यम से सत्य एवं धर्म की लौकिक व्यवस्था स्थापित हुई। भारतीय कला में जिन प्रतीकों की मांगलिकता स्वीकार्य है उनके चिन्तन की पृष्ठभूमि में भारतीय परम्परा की समृद्ध थाती रही है। बौद्ध कला में बुद्ध के चक्रवर्तित्व को उनके हाथों तथा पैरों में प्रदर्शित किया गया है।" इसी प्रकार ब्राह्मण एवं जैन कला में इस प्रतीक की महत्ता है। ___ इक्ष्वाकु वंश में चक्रवर्ती शासकों की सुदीर्घ परम्परा है। इसी प्रकार की एक परम्परा प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के पुत्र चक्रवर्ती भरत की है। जैन ग्रन्थों में ख्यात है कि भरत ने काफी समय तक शासन किया और जीवन के अंतिम वर्षों में संसार त्याग दीक्षा ग्रहण की और कैवल्य प्राप्त किया। जैन कला में भरत और उनके भाई बाहुबली का अंकन है। कुंभारिया (बनासकांठा, गुजरात, १०५३ ई.) के शान्तिनाथ जैन मंदिर एवं विमलवसही (राजस्थान, माउण्ट आबू, १०३२ ई.) के जैन मंदिर के वितानों पर भरत और बाहुबली के विस्तृत दृश्यांकन हैं। चक्रवर्ती सम्राट का पद त्यागकर दीक्षा ग्रहण करने और कठिन तपस्या द्वारा कैवल्य प्राप्ति के कारण जैन धर्म में भरत को भी देवत्व प्रदान किया गया
और उनकी मूर्तियाँ उकेरी गयीं। इसी प्रकार जैन कला के कई पक्ष हैं जो इक्ष्वाकु परम्परा से सम्बद्ध हैं। यह परम्परा तप, दान एवं त्याग की महान् परम्परा को स्थापित करती है। इस प्रकार वैदिक एवं श्रमण संस्कृतियों की आरंभिक एवं परवर्ती रूपरेखा तैयार करने में इक्ष्वाक परम्परा के तात्त्विक चिन्तन उपयोगी रहे हैं।
वास्तव में 'मनुर्भव" और 'कृण्वन्तोविश्वमार्यम्' की वैचारिकी के साथ जिस संस्कृति का रूपायन हुआ उसमें दोनों ही संस्कृतियों की दीर्घकालिक परम्पराओं का योग सम्मिलित था, इसीलिए भारत के बाहर भी इनका प्रसार हुआ। श्रमण चिन्तन ने एक नियंत्रक की भूमिका का सतत् निर्वाह किया और योगपरकता तथा आचारपरकता को सदैव महत्त्वांकित किया। दोनों की सहभागिता तथा परस्पर पूरकता से ही आर्यत्व प्रतिष्ठापित हुआ जिसके लक्षणों को कला में भी चाहे वे जैन आयागपट्ट (आर्यकपट्ट) हों, बौद्ध आसन, चिह्न हों तथा भारतीय कला में वैदिक प्रतीक ही क्यों न हों ये सभी उनकी रूपात्मक अभिव्यक्ति रहे हैं। यह एक सुखद संयोग है कि इक्ष्वाकु परम्परा में इन सभी तत्त्वों की विद्यमानता तथा दोनों ही चिन्तन प्रवृत्तियों का समज्जन देखने को मिलता है। इसीलिए स्पष्टतः परिलक्षित है कि वैदिक एवं श्रमण संस्कृतियों के परस्पर आदान-प्रदान में इक्ष्वाकु परम्परा सदैव महत्त्वांकित एवं योगदायी रही है।
संदर्भ ग्रन्थ १. ऋग्वेद, २.३.१७: मुण्डकोपनिषद. ३.१.१; श्वेताश्वतर उपनिषद, ४.६ "द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनृनत्रन्यो अभिचाकशीति।। २. द्रष्टव्य, गोविन्द्रचन्द्र पाण्डे, श्रमण ट्रेडीशन-इट्स हिस्ट्री एण्ड कान्ट्रीब्यूशन टू इण्डियन कल्चर, पृ. २; विश्वम्भर शरण पाठक, (प्राक्कथन), श्रीरामगोयल कृत ए हिस्ट्री ऑफ इण्डियन बुद्धिज्म; दिवाकर तिवारी, गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास, (देवरिया, २००४), 'श्रमण परम्परा एवं संस्कृति', पृ. १७। ३. डेविड फ्राउली (वामदेव शास्त्री), द ऋग्वेद एण्ड द हिस्ट्री ऑफ इण्डिया, नई दिल्ली, २०००। ४. श्रीकान्त जी तेलगेरि, द ऋग्वेद : ए हिस्टोरिकल एनैलिसिस, आदित्य प्रकाशन, नई दिल्ली, २०००। ५. शिवाजी सिंह, ऋग्वैदिक आर्य और सरस्वती सिन्धु सभ्यता, वाराणसी, २००४: वैदिक कल्चर एण्ड इट्स कान्टीन्यूटी : न्यू पैराडाइम एण्ड डाइमेन्सन, नई दिल्ली, २००४। - ६. ऋग्वेद, १०.६.४ "यस्येक्ष्वाकुरूपव्रते रेवान् मराम्येधते। दिवीव पत्रचकृष्टयः । ७. “यंत्वा वेद पूर्व इक्ष्वाको यं वा त्वा कुष्ठ काम्यः । यं वा वसो यमात्स्यस्तेनासि विश्वभेषजः ।। , अथर्ववेद, १६.३६-६ ८. रामविलास शर्मा, भारतीय साहित्य की भूमिका, राजकमल, नई दिल्ली, १६६६ ।
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