Book Title: Sukhi Hone ka Upay Part 5 Author(s): Nemichand Patni Publisher: Todarmal Granthamala JaipurPage 16
________________ विषय परिचय ) ( १५ एक ही कर्तव्य रहता है कि इन पर्यायों के बीच में रहता हुआ भी, आत्मा पूर्ण सुखी कैसे होवे ? इसी का उपाय समझने का पुरुषार्थ आत्मार्थी को बाकी रह जाता है। इन उपायों का वर्णन इस पुस्तक के आगामी भागों में किया गया है। दोनों भागों के अध्ययन से उपलब्धि उपरोक्त आत्मार्थी ने सारे जगत् से अपनापन तोड़कर एकमात्र अपने ज्ञानस्वभावी आत्मा में अपनापन स्थापन कर लिया । तथा अपने आत्मद्रव्य में भी त्रिकाली ज्ञायक ऐसे जीवतत्व का यथार्थ स्वरूप समझकर उसमें स्वज्ञेय के रूप में अपनापन स्थापन कर लिया। तथा साथ में ही वर्तनेवाली आस्रव बंधादि पर्यायों के स्वरूप को समझकर, परज्ञेय मानकर, उनमें परपना स्वीकार कर लेने पर भी वे मोक्षमार्ग में साधक नहीं हैं, ऐसा भी स्वीकार हो गया, लेकिन जब तक इन सबसे लक्ष्य हटकर, एकमात्र स्वजीवतत्त्व-ज्ञायकतत्त्व में मेरा उपयोग जाकर विश्राम नहीं करे, तब तक मुझे आत्मोपलब्धि अर्थात् आनंदानुभूति तो नहीं होती ? अतः उस मार्ग की खोज करने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील होता है। पुरुषार्थ की विपरीतता ऐसा आत्मार्थी, जब एकांत में बैठकर, उपरोक्त प्रकार के विचारों द्वारा आत्मानुभव करने का प्रयास करता है, तब आत्मा में तो उपयोग नहीं जाता, लेकिन उससे विपरीत, जिनको मैंने मिथ्याबुद्धि से आत्मानुभूति का उपाय मान लिया था, ऐसे उपरोक्त प्रकार के विकल्पों में ही उलझ कर रह जाता है । निराकुलता के स्थान पर आकुलता का उत्पादन करता है । आत्मानुभूति से तो हो गया हो दूर ऐसा लगता है। ऐसा आत्मार्थी अब वास्तव में आत्मानुभूति प्राप्त करना चाहता है अब इसलिए उसने मार्ग समझने में जो भूल की है, वह समझने का प्रयास करता है। Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 246