________________
સ્થવિરાવલી
(मथुरा के प्राचीन इतिहास में भी मूर्तिपूजा की प्राचीनता सिद्ध होती है. इस के लिए यह लेख यहाँ दिया जाता है. संपादक)
(मथुरा में प्राचीन जैन इतिहास)
( लेखक - स्व. प. पू. आचार्य श्री विजय भुवनभानुसूरीश्वरजी म.सा. के शिष्य पंन्यास मुनिश्री भुवनसुंदरविजयजी गणी म . )
૫૫
वि. संवत् ५३० में आचार्य श्री विमलसूरिजी म. ने पउमचरियम् नाम के प्राकृत महाकाव्य का निर्माण किया है, इस ग्रंथ के अनुसार मथुरा में जैनधर्म का प्रसार-प्रचार अवद्य से पधारे हुए सात जैन मुनियों के कारण सविशेष हुआ था. जिन के नाम हैं- सूरिमंत्र, श्रीमंत्र, श्रीतिलक, सर्वसुंदर, जयमंत्र, अनिललित और जयमित्र ।
मथुरा से प्राप्त तीर्थंकर की मूर्तियों की चौंकीयों पर उट्टंकित शिलालेखों ई. सन. पूर्व १५० वर्ष के प्राप्त होते हैं, इससे यह भलिभांति विदित होता है कि मथुरा में जैनधर्म का प्रभाव आज से २२०० वर्ष पूर्व में भी व्याप्त था. यद्यपि उस वक्त बौद्ध व शैव धर्म का प्रभाव भी मथुरा में था. श्री विपाकसूत्र के अनुसार मथुरा में यक्ष सुदर्शन का भी विख्यात स्थान था, यानी उस वक्त जैन श्रमणों को यक्ष पूजकों का सामना करना पडता था.
आ. श्री विमलसूरिजी म. के अनुसार मथुरा के प्रायः सभी जैनियों के घरों में तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ स्थापित थी. मथुरा में २२०० वर्ष पूर्व मुनिसुव्रतस्वामी का मंदिर (चैत्यालय) था.
अंग्रेज विद्वान वुल्हर के अनुसार मथुरा से प्राप्त सबसे प्राचीन शिलालेख ई. स. पू. दूसरी शताब्दी का है, जिसमें लिखा है कि- " श्रावक उत्तरदासकजो वचिका पुत्र है, उसने श्रमण महारक्षित के सदुपदेश से जिन मंदिर का प्रासाद तोरण निर्माण किया है." आर्य महारक्षित नाम के जैन श्रमण ई.स.पू. दूसवी शताब्दी के मथुरा में जैन धर्म के सफल प्रचारक थे !
Jain Education International
वुल्हर के अनुसार मथुरा में दूसरा एक प्राचीन शीलालेख से यह ज्ञात होता है कि ई. स. पूर्व १५० वर्ष में कौशिक गोत्रीय गोत्रीपुत्र और उसकी
For Private & Personal Use Only
-
www.jainelibrary.org