Book Title: Sthaviravali ane Teni Aaspas
Author(s): Gunsundarvijay
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

View full book text
Previous | Next

Page 194
________________ ૧૫૮ સ્થવિરાવલી के आयोग पट्टों, ध्वजस्तम्भों, तोरणों, हरिणैगमेषी देव की मूर्ति, सरस्वती की मूर्ति, सर्वतोभद्र प्रतिमाओं, प्रतिमा पट्टों एवं “मूर्तियों की चौकियों" पर उटुंकित शिलालेखों से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि वस्तुतः ये दोनों स्थविरावलियां अति प्राचीन ही नहीं, प्रामाणिक भी हैं. मुनिराजश्री द्वारा मीमांसाः- आचार्य का हरिणैगमेषी देव की मूर्ति, सरस्वतीकी मूर्ति ऐसा लिखने के बाद “मूर्तियों की चौकियों" ऐसा लिखना मायाचार ही है, क्योंकि परिशेष न्याय से “मूर्तियों की चौकियों" का अर्थ तो 'तीर्थकर भगवान की मूर्तियों की चौकियों" ही होता है, जो छलकपट पूर्वक न लिखकर आचार्य ने पक्षपातपूर्ण वर्तन किया है. फिर खंड २, पृ. ३६ पर टिप्पणी नोंध में- (आचार्यश्री का लेखन) हमारी चेष्टा पक्षपात विहीन एवं केवल यह रही है कि वस्तुस्थिति प्रकाश में लायी जाए. ___ मीमांसाः- ऐसा लिखना धोखेबाजी ही है. क्योंकि हरिणैगमेषी देव की मूर्ति, सरस्वती की मूर्ति आदि लिखना और तीर्थंकर की मूर्ति लिखने का जहां अवसर आया वहां "तीर्थकर भगवान की मूर्तियों की चौकियां" ऐसा न लिखकर सिर्फ “मूर्तियों की चौकियां" ऐसा लिखना क्या अनूठा मिथ्याचार नहीं है ? भगवान का गर्भापहार बालक वर्धमान द्वारा सुमेरु कम्पन आदि के विषय में अन्यों को सत्य वस्तुस्थिति समजाने का प्रयास आचार्य ने किया है, ऐसा प्रयास जिन प्रतिमा के विषय में क्यों नहीं किया ? श्री महावीर स्वामी के विषय में 'मांसभक्षण' का भ्रम दूर करने हेतु आचार्य ने आगम, आगमेतर प्राचीन जैन साहित्य वृत्ति, चूर्णि, भाष्य और टीकादि तथा कोष एवं व्याकरण द्वारा स्पष्टीकरण किया है. वैसा ही प्रयास आगमशास्त्र, आगमेतर प्राचीन जैन साहित्य, आगमों पर रचित वृत्ति, चूर्णि, भाष्य टीकादि साहित्य एवं व्याकरण और शब्दकोष तथा प्राचीन प्रतिमा पर उटुंकित शिलालेखों आदि सामग्री आदि का सहारा लेकर जिनप्रतिमा, जिनमंदिर और जिनपूजा आदि विषयों में गवेषणा और तथ्य का अन्वेषण करना अत्यन्त आवश्यक था जिस पर आचार्य ने पर्दा ही डाल दिया. आचार्य का जैनधर्म विषयक मूर्तियों की चौकियों पर उटुंकित लेखों से श्रीनन्दीसूत्र और श्री कल्पसूत्र की स्थविरवलियों को प्रमाणित करना और स्वयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232