Book Title: Sramana 2008 10
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 6
________________ श्रमण, वर्ष ५९, अंक ४ अक्टूबर-दिसम्बर २००८ पर्यावरण और वनस्पति Jain Education International पर्यावरण की अवधारणा के विषय में विद्वद्वयों ने विभिन्न रूपों में अपने विचार व्यक्त किए हैं। परन्तु पर्यावरण एक अविभाज्य समष्टि है जिसका निर्माण भौतिक एवं जैविक घटकों के पारस्परिक क्रियाशील तन्त्रों से होता है । किसी क्षेत्र के परितन्त्र एवं उसके जीव, जातियों, वनस्पतियों से कतिपय दूसरे क्षेत्र के जीव, जातियों एवं वनस्पतियों की भिन्नता ही जैविक विविधता (Biodiversity) है । जैविक विविधता का संज्ञान हमें क्षेत्र या पारिस्थितिक तन्त्र (Ecosystem) में रहने वाली जातियों या जैविक समुदाय से होता है। इस प्रकार समस्त जीवधारियों की जीनमूलक विभिन्नता जैविक विविधता के अन्तर्गत समाहित है । सम्पूर्ण पृथ्वी पर मानव के साथ-साथ अनेक जीव-जन्तु एवं वनस्पतियों का वास है । जैविक विविधिता के इन घटकों में पारस्परिक क्रियाशीलता न हो तो दोनों पक्ष अजैविक और जैविक एक-दूसरे के लिए अर्थशून्य (Meaningless ) हो जायेंगे। प्रकृति ने इस प्रकार की संरचना की है कि यदि सभी जैविक तत्त्व अपनी आवश्यकतानुसार अजैविक (भौतिक) तत्त्वों का उपभोग करते रहें तो पर्यावरणीय व्यवस्था में संतुलन बना रहता है। डॉ० सुधा जैन* यदि हम आदिकाल पर दृष्टिपात करते हैं तो देखते हैं कि मानव की आवश्यकताएँ एवं आकांक्षाएँ उनकी अनिवार्यता के अनुरूप थीं, फलतः प्रकृति संतुलित रही, पर्यावरण प्रदूषित नहीं हुआ और न ही पर्यावरण की समस्या उत्पन्न हुई। लेकिन जैसेजैसे मानव का विकास हुआ उसकी आवश्यकताएँ बढ़ीं और उसने प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ शुरू कर दी, परिणामतः पर्यावरण की समस्याएँ उत्पन्न होने लगीं। यह सत्य है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव विविध जैविक तत्त्वों का उपयोग करता चला आ रहा है । इमारती लकड़ी, फर्नीचर्स निर्माण, दियासलाई उद्योग, नाव, जलपोत आदि में काष्ठ का उपयोग तथा कन्द-मूल, फल, पत्तियों आदि का अनेक घरेलू एवं औद्योगिक कार्यों में उपयोग यह सिद्ध करता है कि मानव प्राचीन कल से वनों से अपना भरण-पोषण करता चला आ रहा है। वनों के प्रति मानव का * वरिष्ठ प्राध्यापक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई०टी०आई० मार्ग, करौंदी, वाराणसी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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