Book Title: Sramana 2004 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 6
________________ श्रमण, वर्ष ५५, अंक १०.१२ अक्टूबर-दिसम्बर २००४ निर्ग्रन्थ-संघ और श्रमण परम्परा साध्वी विजयश्री 'आर्या' * जैन-श्रमणों का आगामिक एवं प्राचीनतम नाम 'निर्ग्रन्थ' है। आचार्य हरिभद्र ने 'निर्ग्रन्थ' शब्द की व्युत्पति करते हुए कहा है - निर्गतो ग्रन्थाद् निर्ग्रन्थः। ग्रन्थ का अर्थ गाँठ रूप परिग्रह है। धन-धान्यादि बाह्य परिग्रह एवं मिथ्यात्व, अविरति, अशुभयोगरूप आंतरिक परिग्रह से सर्वथा मुक्त श्रमण को 'निर्ग्रन्थ' कहते हैं। आचार्य उमास्वाति ने लिखा है - 'जो कर्मग्रन्थी के विजय के लिए प्रयास करता है, वह 'निर्ग्रन्थ' है। आचारांग में शीतोष्ण के त्यागी को 'निर्ग्रन्थ' कहा है। सूत्रकृतांग के अनुसार, जो राग-द्वेष से रहित होने के कारण एकाकी है, बुद्ध है, निरास्रव है, संयत है, समितियों से युक्त है, सुसमाहित है, आत्मवाद का ज्ञाता है, विद्वान है, बाह्य और आभ्यांतर दोनों प्रकार से जिसके स्रोत छिन्त्र हो गये हैं, जो पूजा-सत्कार और लाभ का अर्थी नहीं है, केवल धर्मार्थी है, धर्मविद् है, मोक्ष-मार्ग की ओर चल पड़ा है, साम्यभाव का आचरण करता है, दान्त है, बंधनमुक्त होने योग्य है और निर्ममत्व है, वह 'निर्ग्रन्थ' कहलाता है। ब्राह्मण से श्रमण, श्रमण से भिक्षु एवं भिक्षु से निर्ग्रन्थ का दर्जा ऊँचा है। निर्ग्रन्थ की पाँच श्रेणियाँ : ___तत्त्वत : 'निर्ग्रन्थ' वह है जिसमें राग-द्वेष की ग्रन्थि का अभाव हो, किंतु व्यवहार में अपूर्ण होने पर भी जो तात्त्विक निर्ग्रन्थता का अभिलाषी है, भविष्य में वह स्थिति प्राप्त करना चाहता है उसे भी 'निर्ग्रन्थ कहा जाता है। अत: चारित्र परिणाम की हानिवृद्धि एवं साधनात्मक योग्यता के आधार पर निर्ग्रन्थ को पाँच भागों में विभाजित किया गया है - १. पुलाक, २. बकुश, ३. कुशील, ४. निर्ग्रन्थ तथा ५. स्नातक। मूल गुण तथा उत्तर गुण में परिपूर्णता प्राप्त करते हुए भी जो वीतराग-मार्ग से कभी विचलित नहीं होते, वे 'पुलाक निर्ग्रन्थ' हैं। शरीर और उपकरणों के संस्कारों का अनुसरण करने वाले सिद्धि तथा कीर्ति के अभिलाषी, सुखशील, अविविक्त परिवार वाला, शबल अतिचार दोषों से युक्त को 'बकुश निर्ग्रन्थ' कहते हैं। इन्द्रियों के वशवर्ती होने से उत्तरगुणों की विराधनामूलक प्रवृत्ति करनेवाला 'प्रतिसेवना कुशील' और कभी-कभी तीव्र कषाय के वश न होकर कदाचित् मंद कषाय के वशीभूत हो जानेवाला 'कषाय कुशील' है। सर्वज्ञता न होने पर भी जिसमें राग-द्वेष का अत्यंत अभाव हो और अन्तर्मुहूर्त *C/o श्रीमती शीला जैन, १३/४०, शक्तिनगर, दिल्ली - ११०००७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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