Book Title: Sramana 2004 10
Author(s): Shivprasad
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 4
________________ सम्पादकीय श्रमण अक्टूबर-दिसम्बर २००४ का अंक सम्माननीय पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है। अत्यन्त विलम्ब से इस अंक को प्रस्तुत करने के कारण हम अपने सुधी पाठकों से क्षमायाचना करने का भी साहस नहीं कर पा रहे हैं। पूर्व की भांति इस अंक में भी जैन साहित्य, आचार, इतिहास एवं कला पक्ष से सम्बद्ध शोध आलेखों को स्थान दिया गया है। इस अंक में हम सुरसुदरीचरिअं के द्वितीय परिच्छेद की शेष गाथाओं की संस्कृत छाया, गुजराती अर्थ और हिन्दी अनुवाद प्रकाशित कर रहे हैं। पूज्य मुनिश्री विश्रुतयशविजय जी द्वारा प्रस्तुत की गयी यह महत्त्वपूर्ण कृति हमें पूज्य आचार्यश्री विजय राजयशसरि जी म.सा. के उदार सौजन्य से प्राप्त हुई है, जिसके लिये हम उनके हृदय से आभारी हैं। __अपने सम्माननीय पाठकों एवं लेखकों से श्रमण के सम्पादक के रूप में यह मेरी अंतिम मुलाकात है। श्रमण का आगामी अंक नये सम्पादकत्त्व में पाठकों के समक्ष होगा। दिनांक : २ जून, २००५ शिव प्रसाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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