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[ ११ ]
अध्याय
प्रधानविषय. १ में प्रजा को अभय देना यह राजा का परम धर्म
बतलाया गया है (३०६-३२३)। राजा की दिनचर्या का वर्णन और प्रजा का पालन, दुष्ट राजकमचारियों से तथा उत्कोच जीवियों का (रिश्वत लेनेवालों का ) सब धन छीनकर राज्य से निकाल दे और उसके स्थान पर श्रेष्ठ जीवियों को सम्मान से रक्खे। जैसेअन्यायेन नृपो राष्ट्रात स्त्रकोषं योऽभिवई येत् । सोऽचिराद्विगतश्रीको नाशमेति सबान्धवः ।। अर्थात् जो राजा अन्याय से राष्ट्र का रुपया अपने खजाने में जमा करता है वह राजा बहुत जल्दी सपरिवार नष्ट हो जाता है। जब राजा के हाथ में कोई नया देश आवे तब उसी देश का आचार, व्यवहार, कुल लिति, मर्यादा जो वहां पहले से है उसी पर चलना चाहिये उसमें उलटफेर नहीं करना चाहिये ( ३२४-३४३)। साम, दाम, दण्ड, भेद कहां पर प्रयोग करने चाहिये उनका वर्णन। दूसरे के राष्ट्र में कब घुसना उसकी परिखिति का वर्णन (३४४-३४८)। राजधर्म में यह बताया है कि पुरुषार्थ और भाग्य