Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 310
________________ ३०० सिन्दूरप्रकर भावना को प्रकट करते हुए कहा। कैसे बनोगे? एक तो हमारे यहां अर्थाभाव है और फिर तुझे पढाने वाला कौन है? पहले राजा की ओर से जो धन मिलता था वह भी अब तेरे पिताजी के जाने के बाद बन्द हो गया है। दूसरे यहां के सारे ब्राह्मण ईर्ष्यालु हैं। वे तुझे विद्यादान दे दें, मुझे संभव नहीं लगता। फिर भी यदि तेरी विद्याध्ययन की उत्कृष्ट इच्छा है तो तू श्रावस्ती नगरी में चला जा। वहां तेरे पिता के परम मित्र इन्द्रदत्त नाम के ब्राह्मण रहते हैं। वे तेरी विद्या पढ़ने की आकांक्षा को पूरी कर सकते हैं, यशा ने कहा। कपिल की उत्कर्ष मनोभावना ने उसे पढ़ने के लिए प्रेरित किया। वह मां का आशीर्वाद लेकर वहां से रवाना हुआ, चलते-चलते श्रावस्ती नगर पहुंच गया और पूछते-पूछते इन्द्रदत्त ब्राह्मण के घर चला गया। ब्राह्मण ने उसका अतिथि-सत्कार करते हुए पूछा-तू कौन है? कहां से आया है? किसलिए आया है? कपिल ने उत्तर देते हुए कहा-भूदेव! मैं आपके परम मित्र काश्यप का पुत्र हूं। मेरा नाम कपिल है। मैं विद्याध्ययन के लिए आपके पास कौशाम्बी से आया हूं। मेरी मां ने मुझे भेजा है। इन्द्रदत्त कपिल के उत्तर से संतुष्ट हुआ। उसने शालिभद्र नाम के धनाढ्य व्यक्ति के पास उसकी भोजन और आवास की व्यवस्था कर अध्यापन कराना प्रारम्भ कर दिया। प्रतिदिन कपिल का क्रम था कि सेठ के यहां भोजन करना और ब्राह्मण इन्द्रदत्त के पास विद्याध्ययन करना। ऐसा करते हुए उसे कुछ दिन बीत गए। सेठ के यहां एक दासी रहती थी। उसका नाम कपिला था। वह कपिल को भोजन परोसने का काम करती थी। वह हंसमुख और विनोदस्वभाव की थी। कपिल भी कभी-कभी उससे मजाक कर लेता था। प्रारम्भ में उसका दासी से संबंध मात्र दृष्टिस्नेह तक ही सीमित था। जब तक दासी कपिल को अपनी आंखों से नहीं देख लेती अथवा कपिल दासी को अपनी आंखों से नहीं देख लेता तब तक दोनों में तृप्ति नहीं होती थी। बढ़ते-बढ़ते वह स्नेह कामराग में परिवर्तित हो गया। एक दिन दासी ने अपनी अन्तर्भावना को प्रकट करते हुए कपिल से कहा-मैं तो आपको अपना सर्वस्व दे चुकी हूं। आप उसे स्वीकार करें अथवा ठुकराएं। अब मैं आपके बिना नहीं रह सकती। कपिल ने भी उसकी कोमल भावना को आदर देते हुए कहा-अब तेरे बिना मेरा सहारा ही क्या है? इधर कपिल को उपाध्याय का भय, परिवार का भय तथा जाति का भी भय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404