Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 360
________________ ३५० सिन्दूरप्रकर विश्राम करने का निषेध थोड़े ही किया है। यदि मैं वहां विश्राम करता हूं तो इसका अर्थ यह नहीं है कि मैं आमों को खा रहा हूं। मंत्री ने पुनः अपने मत को पुष्ट करते हुए कहा-राजन्! हमें जहां जाना ही नहीं है फिर वहां विश्राम करने की बात सोचना भी निरर्थक है। आस-पास में अनेक वृक्ष हैं। हम उनकी छाया में भी बैठ सकते हैं। कई बार आम्रवृक्षों की छाया भी व्यक्ति को रुग्ण कर देती है, इसलिए राजा को आमवृक्षों को उसी प्रकार छोड़ देना चाहिए, जैसे सांप अपनी कंचुली को छोड़ता है। एक बार आप बिमारी को भोग चुके हैं। पुनः वह रोग न हो, इसलिए अब आपको फूंक-फूंक कर पग रखने की आवश्यकता है। व्यक्ति की रसात्मकता बहुत कुछ समझाने-बुझाने और प्रतिषेध करने पर भी वैसी की वैसी बनी रहती है। अज्ञ व्यक्ति को फिर भी समझाया जा सकता है, पर बुद्धिमान् के ऊपर बुद्धिमान् अथवा शासक के ऊपर शासक कौन हो सकता है? मंत्री के बार-बार निषेध करने पर भी राजा ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। बहुत समझाने पर भी राजा ने आम के वृक्ष की छाया में ही विश्राम किया। राजा विश्राम हेतु वहां सोए हुए थे। उनकी ललचाई आंखें बार-बार वृक्ष पर लगे आमों को निहार रही थीं। उनकी भीनी-भीनी सुवास राजा को आनन्दित कर रही थी। अचानक राजा के पास ही पेड़ से टूट कर एक आम्रफल गिरा। राजा ने उसे तत्काल उठा लिया। मंत्री ने राजा का हाथ पकड़ते हुए कहा-महाराजश्री आप क्या कर रहे हैं? आम को हाथ में लेने का अर्थ है किंपाक फल को हाथ में लेना। क्या आप जीवन के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं? राजा ने हंसते हुए कहा-मंत्रीवर! मैंने आम खाया नहीं है, हाथ में ही लिया है। इसमें कौनसा अनिष्ट होने वाला है? वैद्यों ने मुझे आम खाने का निषेध किया है, उसे हाथ में लेने अथवा संघने का निषेध थोड़े ही किया है। जब व्यक्ति जीभ के स्वाद के वशवर्ती होता है तब वह धीरे-धीरे एकएक कदम आगे बढ़ता हुआ संकल्पपूर्ति तक पहुंच जाता है। राजा ने भी वैसा ही कर दिखाया। पहले राजा की इच्छा मात्र आम के वृक्ष के नीचे बैठने की थी। फिर वह आम को ग्रहण करने तथा उसे सुंघने तक सीमित रही। अन्त में उसकी रसलोलुपता ने उसे आम खाने के लिए विवश कर दिया। वह अपने आपको रोक नहीं सका। वह रसनेन्द्रिय का दास बन गया। उसने आम खाया और वह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो गया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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