Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 387
________________ उद्बोधक कथाएं ३७७ का फल दुश्चीर्ण ही होता है। इसी प्रकार उसने अन्यान्य द्वारों पर भी दो-दो महीना खड़े रहकर साधना की। वह सदा समत्व में लीन रहा । धीरे-धीरे लोगों का क्रोध उपशान्त हुआ। उनकी अवधारणाएं बदलीं । प्रतिशोध की भावना मैत्री में रूपान्तरित हुई । एक दिन दृढप्रहारी दस्यु महान् निर्जरा कर केवलज्ञान के आलोक को पा लिया और अन्त में वह सब कर्मों को क्षीणकर सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो गया । ३५. अनुराग से विराग रात्री का दूसरा प्रहर । हजारों-हजारों जलते दीपक मानो निशा की तमिस्रा को मिटाने के लिए दृढसंकल्पित थे । इलावर्धन शहर के मध्य एक आकर्षक और सबको रोमांचित करने वाला नाटक चल रहा था। जनसमूह उस नाटक को देखने के लिए उस दिशा में बढ़ रहा था। सबके मुंह पर एक ही स्वर मुखरित था कि जिसने इस नाटक को नहीं देखा उसने एक स्वर्णिम अवसर को अपने हाथ से गंवा दिया। श्रेष्ठी धनदत्त का इकलौता पुत्र इलापुत्र । वह भी उस अलभ्य अवसर को हाथ से गंवाना नहीं चाहता था। उसने भी नाटक देखने का मानस बनाया और वह वहां चला आया। भीड़ को चीरकर वह कुछ आगे बढा तो उसने देखा कि रूपसीवेश में नटकन्याएं अपना नृत्य कर रही हैं। लचकती मुद्राएं और थिरकते हुए हाथ-पैर वाद्य यंत्रों की धुन पर झूम रहे हैं। नाटक बड़ा ही बेजोड़ और अपूर्व था । सारी जनता तालियों की गड़गड़ाहट से नटमंडली के उत्साह को स्फुरित कर रही थी। सबकी आंखें रंगमंच पर केन्द्रित थी । इलापुत्र उस कला पर मुग्ध हो चुका था और विशेषतः उसका मन एक रूपवती षोडशी नटकन्या में अटका हुआ था । नटकन्या के अंगप्रत्यंग से लावण्य टपक रहा था। उसकी भावपूर्ण मुद्राएं उसके चित्त को मदपायी की तरह मत्त बना रही थी। वह यौवन के उस नाजुक मोड़ पर खड़ा था जहां व्यक्ति फिसलन से बच नहीं सकता । उसकी उद्दाम कामनाओं ने भी उसे ऐसा धक्का दिया और वह भी उसी रंग में अनुरंजित हो गया और मन ही मन उसे जीवन संगिनी बनाने का दृढ निश्चय कर वहां से विदा हुआ । भावनाओं का चक्र भी कालचक्र की भांति घूमता रहता है। कभी व्यक्ति शुभभावनाओं से अशुभभावनाओं के गर्त्त में पड़ जाता है तो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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