Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 391
________________ ३८१ उद्बोधक कथाएं मन नहीं कर रहा था कि वह पुन: उस कला को दिखाए। राजा को प्रसन्न अथवा संतुष्ट किए बिना उसकी कला का मूल्य भी क्या था? अब उसके पास कला दिखाने के सिवाय कोई चारा नहीं था। वह पुनः राजा के अनुरोध को स्वीकार कर बांस पर चढा और नृत्यकला को दिखाने में तन्मय हो गया। कला दिखाते-दिखाते प्रभात हो गया और सूर्य की प्रथम किरण ने उसका स्पर्श करते हुए उसका अभिनंदन किया। बांस के शिखर पर घूमते हुए कुमार की दृष्टि अचानक एक गृहपति के घर की ओर चली गई। वहां एक मुनि रूपवती गृहिणी के हाथ से भिक्षा ग्रहण कर रहे थे। दोनों में यौवन का उभार था, फिर भी मुनि नीची दृष्टि किए अपने कार्य मे तल्लीन थे। न उनमें भावों की मलिनता थी और न वासना की पुट थी। __इस दृश्य को निहारकर इलापुत्र की भावना भी बदल गई। उसने सोचा-कहां तो ये मुनि और कहां मैं? मेरी रूप के प्रति आसक्ति और मेरी दुर्भावना ने मुझे कहां से कहां लाकर खड़ा कर दिया। मैंने धन-वैभव को ठुकराया, अपने मां-बाप को त्यागा, केवल इस नटकन्या के पीछे पागल हो गया। इस पागलपन से मुझे क्या मिला? ऐसा चिन्तन करतेकरते बह अशुभ भावों से शुभ भावों में आरूढ हुआ, शुभ विचार, शुभ अध्यवसाय और शुभ लेश्या में अवस्थित हुआ। उसके एक-एक कर कर्मनिर्जरण की श्रृंखला चल रही थी। अन्त में उसने बांस पर चढे हुए ही केवलज्ञान प्राप्त कर लिया। वह नीचे उतरा। कुमार को केवलज्ञान के आलोक से आलोकित देखकर राजा को भी अपनी दुर्भावनाओं पर अनुताप हुआ। अब नाट्यकला का वह रंगमंच अध्यात्म की कला का प्रदर्शन कर रहा था। चारों ओर एक ही स्वर सुनाई दे रहा था कि जीवन के रूपान्तरण में भावना का कितना मूल्य है? अब इलापुत्र उत्कृष्ट नटकार से उत्कृष्ट महामुनि बन गए, केवलज्ञानी बन गए। ३६. भावना के अनुरूप फल आषाढ का महीना। रिमझिम वर्षा की झड़ी। आकाश बादलों से आच्छन्न था। सूर्य की तपन भी स्वल्प थी। खुशनुमा प्रकृति सारे वातावरण को आह्लादित कर रही थी। चारों ओर भूमि पर हरियाली ही हरियाली बिखरी हुई थी। देखने पर लगता था कि मानो धरती मां हरे रंग की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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