Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 398
________________ ३८८ सिन्दूरप्रकर ने मूसलाधार का रूप ले लिया। मेघ का भयंकर गर्जारव होने लगा। तुफान के थपेड़ों से पेड़-पौधे धराशायी होने लगे। गजराज श्रीवत्स भी प्रकृति की विकरालता को देखकर स्वयं विकराल हो गया। महावत ने उस पर नियंत्रण करने का बहुत प्रयास किया, किन्तु मदोन्मत्त गजराज अंकुश की अवहेलना कर पागल-सा हो गया। उसने महावत को अपनी सूंड से पकड़कर धरती पर गिरा दिया। अब वह निरंकुश होकर तीव्रता से दौड़ने लगा। राजा-रानी हाथी पर सवार थे, किन्तु गजराज की स्थिति को देखकर उनका मन भी भय से आन्दोलित था। रह-रहकर उनके मन में यही आ रहा था कि निरंकुश हाथी अब उन्हें कहां ले जाएगा? सारी जनता, राज्य के सारे अधिकारी तथा पदातिक सेना इधर-उधर बिखर गई थी। पास में कोई नहीं था। विकट परिस्थिति को देखते हुए राजा ने रानी से कहा-प्रिये! देखो, यह सामने विशाल वृक्ष है। जब यह हाथी इसके नीचे से निकले तब तुम सावधानीपूर्वक वृक्ष की शाखा को पकड़ लेना। मैं भी पकड़ लूंगा। नियति की विडम्बना भी विचित्र होती है। व्यक्ति जैसा सोचता है प्रायः उसके अनुरूप नहीं होता। ज्योंही हाथी उस वृक्ष के नीचे से गजरा तो महाराज ने उसकी डाली पकड़ ली। पर महारानी पद्मावती उसकी डाल को नहीं पकड़ सकी। गजराज महारानी को लेकर भयंकर अटवी में चला गया और कीचड़ से भरे तालाब में धंस गया। किनारे पर खड़े कुछेक ग्रामवासियों ने यह सब कुछ देखा। उन्होंने सोचा-यह हाथी तो कीचड़ में धंस कर मरेगा ही, किन्तु हाथी पर सवार इस पुरुष को क्यों मरने दिया जाए। उन्होंने रस्सी के सहारे पद्मावती को तालाब के कीचड़ से निकाल लिया। उसके प्राणों की रक्षा हो गई। अब रानी के सामने धर्म के सिवाय कोई रक्षक नहीं था। वह भयाक्रान्त होकर एक दिशा की ओर चल पड़ी। मार्ग में उसे एक वृद्ध तापस मिला। वह उसे अपने आश्रम में ले गया। उसने उसे खाने के लिए फल-फूल भेंट किए। तापस ने उसका बहुमान किया और दिशा-निर्देश देते हुए कहा-बहिन! तुम दत्तपुर नगर की ओर चले जाना। वहां का राजा दन्तवक्र है। वह बड़ा ही न्यायनिष्ठ और धर्मप्रिय राजा है। वह तुम्हें 'चेटक' राजा के पास पहुंचाने की सम्यक् प्रकार से व्यवस्था कर देगा। महारानी कलिंगदेश के दत्तपुर नगर में पहुंच गई। वहां उसने एक उपाश्रय में कुछ साध्वियों को देखा। वह वहां गई, साध्वियों को वन्दन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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