Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 401
________________ उद्बोधक कथाए ३९१ और बछड़ों को देखा। उनमें से राजा एक बछड़े के प्रति इतना अधिक आकृष्ट हुआ कि मानो पूर्वभव में वह उसका पुत्र रहा हो। वह उसे बहुत ही प्रिय, मनभावन लगा। उसने गोशाला में काम करने वाले कर्मचारियों से कहा-तुम लोग इस वत्स का विशेष ध्यान रखना। इसे इसकी मां का सारा दूध पिलाना। जब यह बड़ा हो जाए तब इसे दूसरी गायों का दूध भी पिलाते रहना। कर्मचारियों ने राजा की आज्ञा को शिरोधार्य किया। बछड़ा सुखपूर्वक दिनों-दिन बढ़ने लगा। कुछ दिनों में तो वह पूरा युवा हो गया। वह देखने में बड़ा ही हृष्ट-पुष्ट और बलिष्ठ था। उसमें शक्ति भी बहुत थी। उस बलिष्ठ वृषभ अन्यान्य वृषभों को पछाड़ देता था। सारी गोशाला में वह एकाकी सबकी नजरों में चढा हुआ था। राजा करकण्डु उसे देखकर अतिप्रसन्न और पुलकित होता था। लम्बे समय तक राजा दूसरे-दूसरे कार्यों की व्यस्तता के कारण गोशाला नहीं जा सका। एक दिन उसे अपने मनप्रिय और अतिआकर्षक वृषभ को देखने की इच्छा हुई। वह वहां गया। गोशाला के अधिकारियों ने राजा का स्वागत किया। राजा ने चारों ओर दृष्टि घुमाई, किन्तु उसकी नजरों में वह युवा बैल दृष्टिगोचर नहीं हुआ। राजा ने गोशाला के उस अधिकारी से जानकारी लेनी चाही, जिसे उसके सार-संभाल की जिम्मेदारी सौंपी थी। अधिकारी ने गोशाला के एक कोने में बैठे हुए एक वृषभ की ओर संकेत करते हुए कहा-महाराजन्! यह वही बैल है जिसकी सारसंभाल के लिए आपने मुझे कहा था। राजा बैल को देखकर भौचक्कासा रह गया। उसे इस बैल में और वर्षों पूर्व देखे बैल में जमीन-आसमान का अन्तर लग रहा था। कहां तो वह युवा बैल और कहां यह मरियल बैल, जिसका अस्थिपंजर दीख रहा था। कहां वह बलिष्ठ और हृष्ट-पुष्ट बैल, जिसके सामने अन्य बैल डरते थे। कहां यह शक्तिहीन दुर्बलकमजोर बैल, जिसकी आंखें भीतर धंसी हुई थी, शरीर पर झुर्रियां दिखाई दे रही थीं, पैर लड़खड़ा रहे थे। अब यह दूसरे बैलों के आघात को भी नहीं सह सकता था। बार-बार राजा गोशाला के रक्षकों से पूछ रहा था-तुम लोगों ने इसकी सार-संभाल नहीं की होगी अथवा इसको खाने के लिए कम दिया होगा तभी यह बैल इस स्थिति में पहुंचा है। गोपालकों ने निवेदन करते हुए कहा-राजन् ! हमने आपके निर्देशानुसार इस बैल के भरण-पोषण में अपनी ओर से कोई कसर नहीं छोड़ी। इसकी यह दशा वृद्धावस्था के कारण हुई है। संसार के प्राणिमात्र को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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