Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 390
________________ ३८० सिन्दूरप्रकर थे। सेठ का पुत्र आज पूरे जोश में आकर अपने करतब को दिखा रहा था। उसे विश्वास था कि वह अवश्य ही राजश्री के द्वारा पुरस्कृत होगा और उसके परिणामस्वरूप वह नटकन्या को भी प्राप्त कर लेगा। जनता का ध्यान नृत्य की ओर था तो राजा का ध्यान उस रूपवती नटकन्या की ओर था। उसके मन में दुर्भावना काम कर रही थी कि यह इलापुत्र कला का प्रदर्शन करते-करते मौत के मुंह में चला जाए तो यह नटकन्या मेरी हो जाएगी। नृत्य करते-करते कुमार बहुत अधिक थक चुका था। उस समय रात्रि का दूसरा प्रहर चल रहा था। वह बांस से नीचे उतरा और राजा का सम्मान पाने के लिए उसके सामने आ खड़ा हुआ। वह उसे कब पुरस्कृत और सम्मानित करने वाला था? राजा का मन कलुषित भावना से भरा हुआ था। वह तो उसे मारना चाहता था। उसने अपनी अन्यमनस्कता जताते हुए कहा-कुमार! तुमने कैसा नृत्य किया? मैं अपने चित्तविक्षेप के कारण उसे देख नहीं सका, अन्यान्य समस्याओं में ही मेरा मन उलझा रहा। यदि तुम पुनः उसे दिखा सको तो.....। नहीं चाहते हुए भी कुमार पुनः बांस पर चढा और पुनः अपनी कला का उत्साहपूर्वक प्रदर्शन करने लगा। सारी जनता चित्रभित्ति बनी हुई उस कला का रसास्वादन कर रही थी। लोगों की दाद बार-बार उस प्रदर्शन को प्रशंसित कर रही थी। अनेक लोग और स्वयं महारानी नटकुमार को पुरस्कृत करना चाहते थे, पर महाराज से पहले कोई उस कार्य को करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। कुमार ने पुनः नीचे उतर कर अपनी याचना प्रस्तुत करते हुए कहा-महाराजन् ! अबकी बार तो आपने अवश्य ही मेरी कला को देखा होगा। मेरा प्रदर्शन कैसा रहा? अब आप मुझे अपने प्रसाद से अनुगृहीत करें। राजा का मन क्रूरता और निष्ठुरता से भरा हुआ था। वह नहीं चाहता था कि इलापुत्र मेरा पुरस्कार प्राप्त करे। वह तो उसे बांस पर ही मरा हुआ देखना चाहता था। जनता भी राजा के इस व्यवहार से क्षुब्ध थी। पर सत्ता की शक्ति के सामने किसका जोर चल सकता था? बहुत चाहते हुए भी जनता कुछ नहीं कर पा रही थी। राजा ने तीसरी बार कुमार से कहा-एक बार तुम अपना कलाकौशल दिखाओ तो मैं जानूं कि तुम्हारा प्रदर्शन कितना उत्कृष्ट है? अभी तक तो मैं केवल निद्रा में रहा हूं। अब पूरी सजगता से तुम्हारी कला को देखूगा। कुमार का शरीर पसीने से तर-बतर था, अंग-अंग थकावट के कारण टूट रहा था। Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404