Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 392
________________ ३८२ सिन्दूरप्रकर साड़ी के परिधान में सबका मनोरंजन कर रही है। किसानों के लिए वर्षा का मौसम अतिरिक्त प्रसन्नता और खुशी का समय होता है। वे उस समय खेतों में हल चलाते हैं, बुवाई करते हैं और धान्योत्पत्ति की आकांक्षा से रात-दिन परिश्रम करते हैं। मुनिजनों का चार महिनों का वर्षावास अहिंसा की विशिष्ट साधना के लिए निर्धारित होता है, क्योंकि वर्षा - त्र -ऋतु में जीवोत्पत्ति बहुलता से होती है। इसलिए वे चातुर्मास से पूर्व ही अपने-अपने निर्धारित स्थानों पर पहुंच जाते हैं। कुछ मुनि चातुर्मासिक प्रवास हेतु विहार कर अपनी मंजिल की ओर बढ रहे थे। मार्ग में उन्हें दो किसान मिले। वे किसान कृषि कर्म के लिए अपने-अपने खेत में जा रहे थे। उनमें से एक किसान कुछ ईर्ष्यालु था। वह सन्तों को सदा वैमनस्यभाव से देखता था। दूसरा किसान भला था। वह सन्तों का आदर-सत्कार करता था। उसके मन में संतों के प्रति प्रमोदभावना बनी रहती थी । सन्त नंगे पैर विहार कर रहे थे और उनका केशलुंचन भी कराया हुआ था। अप्रशस्त भावों में जीने वाला किसान सन्तों को देखकर मन ही मन कुम्हलाया और कुछ गुनगुनाया --अरे! आज तो अपशकुन हो गया। मैंने आज किन सन्तों को देख लिया? उसने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा 'मस्तक मुंड पाग सिर नांही । कड़व हुंसी पर सिट्टा नांही ॥ । ' ये सन्त मुंडित हैं। इनके सिर पर पगड़ी भी नहीं है, लगता है कि ऐसे सन्तों के दर्शनों से इस वर्ष मेरे खेत में कड़वी - ज्वार के ठंडल तो बहुत होंगे, पर ज्वार नहीं होगी। यह सोचता हुआ वह किसान अनमने भाव से अपने खेत की ओर बढ़ गया। दूसरा किसान मुनि-दर्शन से प्रफुल्लित हुआ । उसने अपने भाग्य को सराहा। वह सोचने लगा-सन्तों के दर्शन कितने दुर्लभ होते हैं ? आज अनायास ही मुझे सन्तदर्शनों का लाभ मिल गया । सन्त तो साक्षात् परमात्मा के रूप होते हैं। उनका दर्शन मेरे लिए अच्छा शकुन है। उसने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा दूसरो दैख नै हुयो खुशी । इण रै मात्रै जिस्या सिट्टा हुंसी || मुनिजनों का सिर जितना बड़ा है उतने ही बड़े-बड़े सिट्टे मेरे खेत में होंगे। वह भी इस प्रशस्त भावना से अपने खेत की ओर चला गया। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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