Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 366
________________ ३५६ सिन्दूरप्रकर को दिखाने गया। वह बांस पर चढ़कर जोखिमभरी तथा अद्भुत कला का प्रदर्शन कर रहा था। पल्लीपति भी उस कन्या के रूप पर मोहित हो गया। वह चाहता था कि किसी न किसी प्रकार यह कन्या मेरे हाथ लग जाए। उसने मेरे पुत्र को मारने की योजना बनाकर उसके द्वारा करतब दिखाते-दिखाते ही बांस को काट दिया। धरण धड़ाम से धरती पर गिरा और पलभर में उसका प्राणान्त हो गया। उसके बाद पल्लीपति ने उस नटकन्या के साथ विवाह कर लिया। इस प्रकार रूप के वशवर्ती होकर और चक्षुरिन्द्रिय की दासता के कारण वह भी काल के गर्त में समा गया। मेरे तीसरे पुत्र का नाम यश था। वह घ्राणेन्द्रिय के वशीभूत बना हुआ था। उसे प्रतिदिन नए-नए सुगन्धित पदार्थों को सूंघने की लालसा रहती थी। एक बार वह उद्यान में गया। वहां वह मालती पुष्पों की सुगन्ध से बावला-सा बन गया। वह मालतीकुंज में उन पुरुषों की सुगन्ध लेना चाहता था। वनपालक ने उसे वहां जाने से रोका, पर वह नहीं माना। मना करने पर भी वह वहां पहुंच गया। गन्ध की आसक्ति में वह इतना अधिक पागल बना कि उसे सामने बैठे भयंकर काले नाग का भी पता नहीं चला। अचानक उसका पैर सांप पर पड़ा। पैर पड़ते ही सांप ने उसे डस लिया। भयंकर विष उसके शरीर में फैल गया। बहुत उपचार किए गए, किन्तु वह विष से मुक्त नहीं हो सका। वह चिरनिद्रा में सो गया। यह सारा परिणाम घ्राणेन्द्रिय-विषय की पराधीनता का था। मेरा चौथा पुत्र यशचन्द रसना का लोलुप था। वह सदा सरस, स्वादिष्ट भोजन की ताक में रहता था। जहां सरस भोजन खाने को मिलता वह बिना बुलाए पहुंच जाता। उसे प्रतिदिन नए-नए व्यंजन, विविध प्रकार की मिठाइयां, अटपटे-चटपटे पक्वान्नों के खाने की ललक रहती थी, इसलिए जीभ की तृप्ति ही उसके लिए आवश्यक थी, पेट की ओर ध्यान कम था। एक बार वह व्यापार के निमित्त बैलगाड़ियों में माल भरकर परदेश गया। वहां धनोपार्जन किया। परदेश में रहते हुए उसकी मित्रता एक निम्नवृत्ति वाले व्यक्ति से हो गई। वह लोभी व्यक्ति था। उसमें धन का लोभ जाग गया। उसने यशचन्द का धन लेने की योजना बनाई। वह उसकी रसलोलुपता से परिचित था, इसलिए उसे एक अच्छा उपाय हाथ लग गया। उसने सुस्वादु और सरस मोदक बनवाएं। उनमें उसने विष मिला दिया। एक दिन उस मित्र ने रसलोलुपी मेरे पुत्र को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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