Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 365
________________ उद्बोधक कथाएं ३५५ वहां गए। सुलसा भी वहां आई। वह आचार्यश्री और सुयशमुनि को वन्दन कर उचित स्थान पर बैठ गई। उस समय सुलसा की आंखों में आंसू थे। वह अपनी साड़ी के अंचल से उन आसुंओं को पोंछ रही थी। आचार्य दमघोष ने समझा कि शायद बहिन को अपने संसारपक्षीय पति के प्रति मोह जाग गया है, इसलिए वह आंसू बहा रही है। आचार्य ने उसे शान्त करते हुए पूछा-क्या बहिन! तुम्हारा मुनि सुयश के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ है अथवा अन्य कोई समस्या है? सेठानी सुलसा ने कहा-महाराजश्री! सेठ सुयश के प्रवजित होने के बाद मेरे पांचों पुत्र इन्द्रियलोलुप होकर स्वच्छन्द हो गए। उसके कारण उन सबको असमय में काल-कवलित होना पड़ा। उन घटनाप्रसंगों को मैं आपके सामने रख रही हूं। मेरा पहला ज्येष्ठ पुत्र धर संगीतप्रेमी था। उसका संगीतप्रेम इतना अधिक था कि उसने लोक-लज्जा को भी त्याग दिया। वह संगीत के लिए एक चांडाल गवैये के घर जाने लगा। वह उसे और उसके परिवार को ही सब कुछ समझने लगा। लोगों में ऊहापोह और अपयश फैलने लगा। राजा ने भी उसके अपयश को सुना। राजा के मन में तर्कणा हुई कि एक कुलीन लड़का चांडाल के घर क्यों? राजा ने उसे वर्णसंकर दोष उत्पन्न करने वाला मानकर महाजनों के सामने ही मरवा दिया। मैं देखती रह गई। यह श्रोत्रेन्द्रिय-विषय की दासता का परिणाम था, जो उसे भोगना पड़ा। मेरा दूसरा पुत्र धरण रूप का उपासक था। वह हमेशा नई-नई युवतियों के रूप-लावण्य पर न्यौछावर रहता था। एक दिन नगर में एक नटमंडली आई। उस मंडली के साथ एक षोडशी नटकन्या भी थी। जैसे भंवरा सुकोमल पुष्पिका पर मंडराता है वैसे ही पुत्र भी उसके चारों ओर मंडराने लगा। वह सौन्दर्य के चक्कर में अपने कुल की मर्यादा भी भूल गया। उसका सारा धन नटकन्या को प्राप्त करने में लग गया। अन्त में नटकन्या के पिता ने उससे कहा-यदि तुम इस कन्या को चाहते हो तो पहले नटविद्या का अभ्यास करो, अपने करतब दिखाकर जनता को रीझाओ, कुछ कमाकर लाओ, तब कहीं तुम्हें यह नटकन्या मिल सकती है। मेरे पुत्र ने उसके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। वह घर से निकल गया। कुछ समय बाद वह नटविद्या में प्रवीण हो गया और नटों के साथ घूमता-फिरता हआ अपनी कला का प्रदर्शन करने लगा। एक बार वह कालसेना नाम की भीलों की पल्ली में अपनी कला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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