Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 367
________________ उद्बोधक कथाएं ३५७ भोजन के बहाने आमन्त्रित किया । मोदकों का भोजन सुनकर तो उसके मुंह से लार टपकने लगी। उसने उन मोदकों को बड़े ही चाव से और जी भरकर खाया। विष ने अपना प्रभाव छोड़ा। देखते-देखते उसके प्राण निकल गए। यह उसकी रसलोलुपता का परिणाम था । मेरा पांचवां पुत्र चन्द सबसे छोटा था। उसे स्पर्शजन्य सुखों की आकांक्षा रहती थी, कामभोग उसके सहचर थे। वह रात-दिन स्पर्शनेन्द्रिय के द्वारा अपनी वासना को पूरी करना चाहता था। जब उसे अपनी पत्नी से तृप्ति नहीं हुई तो वह वेश्याओं के यहां जाने लगा । विषय के अत्यधिक सेवन से उसका शरीर क्षीण होने लगा। एक दिन वह वसन्त नाम की वेश्या के घर गया। उसका स्पर्शसुख पाकर वह उसका ऐसा दास बना कि उसने पुनः कभी घर आने का नाम ही नहीं लिया। उस वेश्या ने उसे कामकला में पागल बनाकर सारा धन बटोर लिया। वेश्या तो धन की दासी होती है। जब मेरे पुत्र का सारा धन निकल गया तो उसने भी उसे अपने घर से निकाल दिया। वह वहां से जाने को तैयार नहीं था । उसने वहां रहने के लिए बहुत अनुनय-विनय किया, पर वह वेश्या नहीं मानी। अन्त में वेश्या ने छल के द्वारा अपने गुप्तपुरुषों से उसकी हत्या करा दी। इस सारे जघन्य अपराध का परिणाम था- स्पर्शनेन्द्रिय-विषयसुख । आचार्य दमघोष ने बहिन को समझाते हुए कहा - इन्द्रियों के वशीभूत होना कठिन नहीं है, इन्द्रियों को जीतना, उनको अपने वश में करना कठिन कार्य है । सारी साधना इन्द्रियदमन के लिए ही की जाती है। जो व्यक्ति इन्द्रियों का दास रहता है, उनकी गुलामी में जीता है वह पग-पग पर कष्ट पाता है। उसकी अन्त में दुर्गति होती है। ३१. लक्ष्मी है वहां सेठजी! सेठजी! सो रहे हो या जाग रहे हो ? किसी अज्ञात स्वर ने सेठजी को पुकारा। रात्रि का सघन अन्धकार | नीरव वातावरण । न किसी का आवागमन और न किसी आदमी का दर्शन । सेठ कमलनाथजी अपने कमरे में सोए हुए थे। कमरे में मन्द प्रकाश था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। चारों ओर सन्नाटा पसरा हुआ था। कभी कभी झिंगुर का शब्द अवश्य शब्दायमान था । पुनः किसी अनजान स्वर ने सेठजी को पुकारा- सोए For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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