Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 377
________________ उद्बोधक कथाएं ३६७ संन्यासीजी भी समझ गए कि अब ज्यादा हठ करने में लाभ नहीं है। यह सब संन्यासिनवेश में लक्ष्मीजी का ही करिश्मा है। ज्योंही संन्यासीजी अपने दंड-कमंडल समेटकर घर के बाहर निकलने लगे त्योंही सामने से संन्यासिनजी का मिलना हो गया। संन्यासिनवेश में लक्ष्मीजी ने विष्णु भगवान को हाथ जोड़ते हुए पूछा-क्यों भगवन्! पलड़ा किसका भारी रहा? जीत आपकी हुई अथवा मेरी? विष्णु भगवान ने अपनी पराजय स्वीकार करते हुए कहा-लक्ष्मि! तुम जीती, मैं हारा। वस्तुतः तुम्हारे आगे धर्म का आकर्षण भी कम हो जाता है। वहां प्रभुत्व धन का रहता है। ३३. सुपात्र दान श्रीपुर नाम का सुन्दर नगर अपने सौंदर्य के कारण लोगों के दिल में बसा हुआ था। वहां सुरादित्य नाम का एक सद्गृहस्थ रहता था। उसकी पत्नी का नाम रत्ना और पुत्र का नाम प्रसन्नादित्य था। कुछ समय के बाद सुरादित्य काल-कवलित हो गया। घर की आर्थिक स्थिति कमजोर थी। मां-पुत्र दोनों दूसरों के घर मजदूरी कर अपना पेट पालते थे। एक बार कोई उत्सव का दिन आया। लोग आमोद-प्रमोद के द्वारा उत्सव मना रहे थे। उस दिन घर-घर में खीर बनाई गई थी। बच्चे-बूढे सभी खीर-खांड का भोजन कर रहे थे। जब रत्ना के पुत्र प्रसन्नादित्य ने दूसरे बच्चों को खीर खाते देखा तो उसका मन भी खीर खाने के लिए मचल उठा। उसने अपनी मां से खीर बनाने को कहा। मां ने अपनी असमर्थता जताते हुए बच्चे को बहुत समझाया, पर बालक ने अपना आग्रह नहीं छोड़ा। दुविधा की स्थिति जानकर मां की आंखों से आंसुओं की धार बहने लगी। सखियों ने वस्तुस्थिति जानकर रत्ना को खीर बनाने की सामग्री लाकर दे दी। मां ने खीर बनाकर उसे एक थाली में परोसकर बालक को खाने के लिए दे दी। बालक खीर को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। जीवन में खीर खाने का उसका पहला ही अवसर था। बालक ज्योंही खीर खाने के लिए उद्यत हुआ कि इतने में मासखमण की तपस्या के धारक मुनि अपनी तपस्या के पारणा हेतु वहां आ गए। बालक की मां भीतर गई हुई थी। मुनि को देखकर बालक का मन अत्यन्त प्रमुदित हुआ। उसने सुपात्रदान की भावना से मुनि को खीर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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