Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 378
________________ ३६८ सिन्दूरप्रकर बहराने का अनुरोध किया। मुनि ने भी बालक की शुद्ध और उत्कट भावना को परखकर तथा अपने लिए एषणीय वस्तु जानकर बालक के हाथ से खीर ग्रहण कर ली। बालक ने निर्मल भावना से द्रव्यशुद्ध, दायकशुद्ध और दाताशुद्ध-दान देकर देव का आयुष्य बांध लिया। मां भीतर से बाहर आई। थाली को खाली देखा। उसने सोचाशायद बालक ने खीर खा ली है। उसने पुनः थाली में खीर परोसी। बालक ने थोड़ी-सी खीर खाकर अपने आपको तृप्त कर लिया। रात्रि में अचानक बालक को विसूचिका का रोग उत्पन्न हुआ। आयुष्य को पूरा कर वह मरकर देवलोक में उत्पन्न हुआ। लम्बे समय तक वह देव-सुखों को भोगता हुआ वहां से च्युत होकर राजगृह नगर में सेठ धनावह के घर जन्मा। उसकी मां का नाम भद्रा था। सेठ ने अपने पुत्र का नाम कृतपुण्य रखा। वह बड़ा होने लगा और धीरे-धीरे अनेक कलाओं में पारंगत हो गया। युवा होने पर उसका उसी नगर के सेठ सागरदत्त की पुत्री जयश्री से विवाह हो गया। वह कामभोगों से सर्वथा अनभिज्ञ था। उसे पता ही नहीं था कि दाम्पत्य जीवन कैसे चलाया जाता है? उसकी पत्नी जयश्री कुलीन स्त्री थी। वह भी अपनी ओर से उसकी उदासीनता में बाधक बनना नहीं चाहती थी। माता-पिता भी पुत्र की अनभिज्ञता से चिन्तित थे, इसलिए उन्होंने कामकला की शिक्षा देने के लिए पुत्र को नगर की देवदत्ता वेश्या के घर भेज दिया। कुछ दिनों के बाद कृतपुण्य पूरी तरह वेश्या के वशीभूत हो गया। सेठ धनावह का धन देवदत्ता वेश्या के यहां जाने लगा। पूरा घर धन-सम्पत्ति से खाली होने लगा। मां-बाप भी दिवंगत हो गए, फिर भी कृतपुण्य ने गणिका के घर को नहीं छोड़ा। वह बारह वर्षों तक वहां रहा। आखिर उसकी भार्या ने उसे बुलाने के लिए अपने आभूषण तक वेश्या के घर भेज दिए। देवदत्ता की मां सुलोचना ने आभूषणों को देखकर समझ लिया कि अब कृतपुण्य के घर में धन नहीं है। वेश्या का सम्बन्ध तो मात्र धन तक ही सीमित था। जब धन ही नहीं रहा तो वेश्या की प्रीति भी समाप्त हो गई। उसने एक दिन अवसर देखकर कृतपुण्य को अपने घर से विदा कर दिया। वह अपने घर आया। पत्नी जयश्री ने उसका हार्दिक स्वागत किया। पत्नी से पूछा-क्या कुछ घर में है? उसने कहा-मैं दूसरों के घर काम कर आजीविका चला रही हूं। धनाभाव के कारण कृतपुण्य ने परदेश जाकर धनोपार्जन की इच्छा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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