Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 384
________________ ३७४ सिन्दूरप्रकर अनुत्तर गति को प्राप्त किया। अन्त में वे सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होकर मोक्षगामी होंगे। ३४. दृढप्रहारी संध्या का समय। अंशुमाली धीरे-धीरे अस्ताचल की ओर जा रहा था। रात्रि की तमिस्रा चारों ओर फैल रही थी। एक अनजान चेहरा देवशर्मा ब्राह्मण के यहां ठहरा हुआ था। उसकी क्रूरता लोगों से छिपी हुई नहीं थी। लोग उसके नाम से आतंकित और कारनामों से सशंकित थे। उसकी तलवार हमेशा खून से सनी रहती थी। उसके लिए किसी के प्राणों को लूटना सहज और सामान्य कार्य था। वह राहगीरों को लूटने, डाका डालने और किसी के यहां सेंध लगाने में अत्यन्त कुशल था। दूसरों की आंखों में धूल झोंकना, चोरी करना आदि कार्य तो उसने बचपन में ही सीख लिए थे। उसके मन में न लज्जा थी और न दया और करुणा का भाव था। वह किसी पर दृढप्रहार करने में नहीं चूकता था। उसका किया हुआ प्रहार भी कभी खाली नहीं जाता था, इसलिए वह लोगों में 'दृढप्रहारी' के नाम से प्रसिद्ध हो गया। जिस प्रकार सत्संगति जीवन को सन्मार्ग पर ले जाती है वैसे ही कुसंगति व्यक्ति को कुमार्ग की ओर ढकेलती है। ऐसा ही दृढप्रहारी के जीवन में भी घटित हुआ। वह जन्म से ब्राह्मण था, किन्तु कर्म से खूखार डाकू बन गया। उसके माता-पिता धार्मिक और भद्रप्रकृति के व्यक्ति थे। दृढप्रहारी सर्वथा उनसे विपरीत था। उसमें सातों ही दुर्व्यसन घर कर गए। माता-पिता ने उसे लाड-प्यार से समझाया, कठोरता से भी समझाया, पर वह कब समझने वाला था। आखिर उन्होंने उसे घर से निकाल दिया। वह एक चोरपल्ली में शामिल हो गया और अपनी दक्षता के कारण एक दिन वह चोरों का सरदार बन गया। एक दिन वह अपने मित्र चोरों के साथ किसी गांव को लूट कर आ रहा था और रास्ते में स्वयं किसी दरिद्र ब्राह्मण के घर ठहर गया। उस दिन ब्राह्मण के घर में खीर का भोजन बना था। घर के बच्चे-बूढे सभी खीर खाने को लालायित थे। वह भी खीर खाने के लिए आमन्त्रित था। ब्राह्मणी ने सोचा-पहले घर के सदस्यों को खीर परोस दूं, बाद में आगन्तुक व्यक्ति को खीर डाल दूंगी। दृढप्रहारी भूख से आकुल-व्याकुल बना हुआ था। वह बिना बुलाए ही रसोईघर में जा बैठा और खीर के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International

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