Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 375
________________ उद्बोधक कथाएं ३६५ बड़े ही आदर-सत्कारपूर्वक अपने घर ले गई। उसे रहने के लिए भवन का एक विशाल कमरा दे दिया। उसमें सब प्रकार की सुख-सुविधाएं उपलब्ध थीं। अब मालकिन का संन्यासिन के प्रति जो आदर-सत्कार शुरू हुआ वह अपने आपमें अभूतपूर्व और निराला था। अच्छे से अच्छा भोजन, सोने की व्यवस्था, पगचंपी तथा स्नान की व्यवस्था तथा अन्यान्य चिकित्सा आदि व्यवस्थाओं को देखकर लगता था कि स्वागत संन्यासिन का है अथवा धन के लोभ का। धन का लोभ व्यक्ति से क्या कुछ नहीं कराता? मालकिन के मुंह से धन की लार टपक रही थी। उसने यही सोच रखा था कि इस कामधेनु को जितना दुह लिया जाए वह सब मेरा है। संन्यासिन जिन पात्रों में भोजन करती अथवा जिन पात्रों से पानी आदि पीती तो वे सब सोने में बदल जाते थे। मालकिन का भी यही लक्ष्य था कि अधिक से अधिक पात्रों को उसके हाथ में दिया जाए और उन्हें शुद्ध सोने में परिवर्तित देखा जाए। इस प्रकार उसके घर में सोने के बर्तनों का ढेर लग गया। आस-पास रहने वाले लोगों को भी इस रहस्य का पता लगा। वे भी संन्यासिन के पास आकर धन पाने की लालसा में उसके इर्द-गिर्द घूमने लगे। कोई व्यक्ति पीतल की थाली में फलों को सजाकर लाता तो कोई बड़ी-सी बाल्टी दूध से भरकर लाता। सबकी यही दौड़धूप थी कि किसी न किसी प्रकार संन्यासिन का हाथ बर्तनों पर पड़ जाए और वे निहाल हो जाएं। संन्यासिन के जादुई हाथ की बात एक दूसरे के द्वारा पहुंचतीपहुंचती सारे नगर में फैल गई। जहां हजारों लोगों की भीड़ संन्यासी का प्रवचन सुनने के लिए लगी रहती थी अब वह भीड़ उस संन्यासिन के पास जमा होने लगी। धीरे-धीरे लोगों का आकर्षण संन्यासी से हटकर संन्यासिन की ओर बढ़ रहा था। अब प्रवचन में भी लोगों का आनाजाना कम हो गया। जिस भवन में संन्यासीजी ठहरे हए थे उसके मकानमालिक ने भी जादुई करिश्मा की बात सुनी। उसके मन में भी लोभ उतर आया। उसने सोचा-यदि वह संन्यासिन मेरे भवन में एक बार भी जा जाए तो मैं धनकुबेर बन सकता हूं। इस विचार से वह सेठ भी दौड़ादौड़ा संन्यासिन के पास पहुंचा और अपने भवन में पदार्पण की विनती करने लगा। संन्यासिन ने उसकी प्रार्थना को सुना और उसे समझाते हुए कहा-सेठजी! मैंने सुना है कि आपके मकान में पहले ही एक संन्यासीजी अपना चातुर्मास बिता रहे है। उसके रहते हुए मैं वहां नहीं जा सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only ____www.jainelibrary.org

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