Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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३५१
उद्बोधक कथाएं ५. स्पर्शनेन्द्रिय की दासता
वसन्तपुर नाम की नगरी। वहां का राजा जितशत्रु और उसकी रानी का नाम सुकुमालिका था। जैसा उसका नाम था वैसा ही उसका स्पर्श था। राजा रात-दिन स्पर्शनेन्द्रिय सुख के वशीभूत बना हुआ था। न उसे राज्य-संचालन की चिन्ता थी और न प्रजापालन की। वह सदा पत्नी में अनुरक्त होकर अन्तःपुर में ही अधिक समय बिताता था। राज्य के अधिकारीगण राजा की इस पराङ्मुखता से चिन्तित और हताश बने हुए थे।
एक दिन मंत्री, सामन्त तथा अन्यान्य अधिकारीगण आपस में मिले। सबने मिलकर चिन्तन किया कि यदि राज्य की यही स्थिति बनी रही तो दूसरा राजा अवसर का लाभ उठाकर इस राज्य को अपने राज्य में भी मिला सकता है? यह सोचकर सबका यही निर्णय रहा कि वर्तमान राजा को हटाकर उसके पुत्र को राजगद्दी पर बिठा दिया जाए। एक दिन अवसर देखकर राजकर्मचारियों ने राजा-रानी को सोते हुए राजमहल से उठाया और वे उनको भयंकर अटवी में छोड़ आए। राजसिंहासन पर राजा के पुत्र का अभिषेक कर दिया।
अब राजा-रानी अरण्य में एकाकी थे। कहां तो राजमहलों की सुविधाएं और कहां अब जंगल की दुविधाएं ! कहां तो उनकी सेवा में रहने वाले सैंकड़ों नौकर-चाकर और कहां अब स्वयं के हाथ-पैर ही कर्मकर ! राजा ने अपने द्वारा कृत समस्या मानकर और अपने द्वारा ही निर्मित परिस्थिति को जानकर उसे झेलना ही उचित समझा। रानी को प्यास लगी। उसने पतिदेव से पानी की याचना की। जंगल में पानी कहां से आए? बहुत खोज करने पर भी राजा को पानी नहीं मिला। उसने युक्तिपूर्वक रानी को यह कहकर उसकी आंखों पर पट्टी बांध दी कि 'यह अटवी अति भयानक है, कहीं तुम डर न जाओ।'
राजा ने रानी की प्यास बुझाने के लिए अपनी भुजाओं से रक्त निकाला। वह गाढा न पड़ जाए, उसे पतला रखने के लिए उसमें मूलिका को मिलाया और उसे रानी को पिला दिया। जब रानी को भूख लगी तब राजा ने अपनी जांघ का मांस काटकर खिला दिया और अपने घाव को व्रणरोहिणी जड़ी लगाकर ठीक कर लिया।
राजा-रानी दोनों चलते-चलते एक नगर में पहुंचे। वहां पहुंचकर राजा ने व्यापार करना प्रारम्भ कर दिया। रानी के पास आभूषण थे।
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