Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 324
________________ ३१४ सिन्दूरप्रकर अपनी आज्ञा को स्वीकार करवाने के लिए बाहुबलि के पास अपना सन्देश भेजा। उनका स्वाभिमान जाग उठा। उन्होंने सोचा-यह कैसा मेरा भाई, जो अपनी राज्यलिप्सा के कारण मुझे भी अपनी आज्ञा में चलाना चाहता है। मैं पराक्रम और शक्ति की दृष्टि से उनसे न्यून थोड़े ही हूं? वह मुझे क्या समझता है? उन्होंने भरत को साफ-साफ कहलवा दियासपनों की दुनिया को छोड़कर यथार्थ के धरातल पर आओ। न तो तुम्हारा भाई तुम्हारी अधीनता स्वीकार करेगा, न ही तुम्हारी साम्राज्यतृष्णा शान्त होगी। अब युद्ध ही इसका एकमात्र विकल्प है। बाहुबलि का संदेश पाकर अब भरत के लिए युद्ध करना अनिवार्य हो गया। बहली प्रदेश की सीमा पर दोनों की सेनाएं डट गईं। युद्धभूमि का दृश्य भयानक दिखने लगा। देखते-देखते रणभेरी बज उठी। दोनों भाइयों के मन में आया कि हमारे कारण हजारों-हजारों सुभट निप्रयोजन इस विनाशकारी युद्ध में मारे जाएंगे। लड़ना तो है हम दोनों भाइयों को, फिर निर्दोष व्यक्तियों का प्राणसंहार क्यों किया जाए? यह सोचकर उन्होंने युद्ध का स्वरूप बदला और निर्णय लिया कि हम दोनों में ध्वनियुद्ध, दृष्टियुद्ध, मुष्टियुद्ध, बाहुयुद्ध और दंडयुद्ध होगा। जो उनमें जीतेगा, जीत उसी की होगी। उन सभी युद्धों में बाहुबलि विजयी रहे। सम्राट भरत अपने को पराजित जानकर और अधिक क्रोध के आवेश में भर गए। वे अपना भान भूल गए और बाहुबलि को मारने के लिए उन पर चक्र चला दिया। वह चक्र सगे भाई बाहुबलि का संहार कैसे कर सकता था? वह देवाधिष्ठित चक्र था। बाहुबलि की प्रदक्षिणा कर वह पुनः भरत के पास लौट आया। भाई के द्वारा किया जाने वाला ऐसा जघन्यतम प्रयत्न देखकर बाहुबलि का अहंकार फुफकार उठा। उन्होंने रोषारुण होकर भरत को मारने के लिए मुट्ठी तान ली। बाहुबलि की तनी हुई मुट्ठी को देखकर देवगण घबराए और सोचा-कहीं महान् अनर्थ घटित न हो जाए। उन्होंने बाहुबलि को संबोधित करते हुए कहाबाहुबले! इस संसार में ऐसा कौन है, जो आपकी मुट्ठी के आघात को सहन कर सके? आप भरत को भाई जानकर उसे अपनी क्षमा से अभिस्नात करें। देवों के उद्बोधन से बाहुबलि कुछ शान्त हुए, पर उनकी उठी हुई मुट्ठी नीचे आने को तैयार नहीं थी। उन्होंने उस मुट्ठी से पंचमुष्टि लोच किया और उनके चरण साधनापथ पर बढ़ गए। सम्राट भरत अपनी भूल मानकर अनुताप करते हुए बार-बार उनके चरणों में प्रणत Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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