Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 343
________________ उद्बोधक कथाएं ३३३ महल में बुलवा लिया। पिता की दुर्दशा को देखकर पुत्र धन्यकुमार का मन आहत हो गया, पर कर्मों की मार के आगे वह भी लाचार था। उसने पुत्र होने के नाते पिताश्री और सारे परिवार को यथोचित सुख-सुविधाएं प्रदान कीं, रहने और खाने की व्यवस्था की । अन्त में धन्यकमार ने पिताश्री को निवेदन करते हुए कहा- जब तक मैं यहां हूं आप निश्चिन्त होकर सुखपूर्वक रहें। मेरी ओर से उसमें कोई न्यूनता नहीं आएगी। यह सत्य है कि व्यक्ति वय से, रहन-सहन से, परिवेश से, आकारप्रकार आदि से बहुत कुछ बदलता है, पर आदत से वह वहीं का वहीं रहता है। लाला, बाला और काला के उपनामों से पहचाने जाने वाले तीनों भाइयों का व्यवहार अपने भाई धन्यकुमार के साथ पहले जैसा ही था। उनके मन में ईर्ष्या की ज्वाला भभक रही थी। वे भाई का अनिष्ट करने पर तुले हुए थे । उनकी आंखों में भाई का वैभव, शाही ठाठ-बाट खटक रहा था। वे चाहते थे कि धन्यकुमार की संपत्ति का हिस्सा उनको भी मिले। बड़ी विचित्रता है कि दुर्जन व्यक्ति अपनी दुर्जनता को नहीं छोड़ता तो सज्जन व्यक्ति अपनी सज्जनता को नहीं छोड़ता । धन्यकुमार सज्जन- प्रकृति का व्यक्ति था, इसलिए वह दुर्जन भाइयों के साथ भी सज्जनता का व्यवहार कर रहा था। पर सज्जनता कब तक चलने वाली थी? आखिर धन्यकुमार ने उनसे तंग आकर उज्जयिनी नगरी को भी छोड़ दिया। रात्रि का समय । यात्रा का मार्ग । धन्यकुमार अनजाने देश की ओर बढ़ रहा था। मार्ग में गंगा देवी ने उसके शील की परीक्षा ली। वह उसमें उत्तीर्ण हो गया। देवी ने प्रसन्न होकर उसे चिन्तामणि रत्न प्रदान किया। कुमार चिन्तामणि रत्न लेकर राजगृही पहुंचा। वहां उसने सेठ कुसुमपाल के सूखे बगीचे में विश्राम किया। यह कहावत है कि पुण्यवान् व्यक्तियों का पादन्यास भी सुख के लिए होता है। वे जहां जाते हैं, वहां खोई हुई सुख-समृद्धि पुन: लौट आती है। धन्यकुमार के भाग्य और चिन्तामणि रत्न ने अपना प्रभाव दिखाया। सेठजी का सूखा बगीचा पुनः हरीतिमा से हरा-भरा हो गया । सेठ ने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री 'कुसुमश्री' का विवाह धन्यकुमार से कर दिया। एक दिन राजगृही के महाराज श्रेणिक का प्रधान हाथी सेचनक मद से उन्मत्त हो गया। वह उच्छृंखल होकर नगर में उत्पात मचाने लगा। उसको वश में करने के लिए अनेक प्रयत्न किए गए, किन्तु वे सभी व्यर्थ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International


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