Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 344
________________ ३३४ सिन्दूरप्रकर सिद्ध हुए। नगर में सर्वत्र हाथी की उच्छंखलता से जनहानि और मालहानि हो रही थी। लोगों में हाहाकार मचा हुआ था। राजा श्रेणिक चिन्तातुर थे। कोई उपाय सूझ नहीं रहा था। राजा श्रेणिक के अमात्य अभयकुमार बुद्धिमान् समझे जाते थे, किन्तु वे भी उस समय महाराज चंडप्रद्योत के यहां उज्जयिनी में बन्दी बने हुए थे। सारे नगर में उद्घोषणा कराई जा रही थी कि जो भी व्यक्ति सेचनक हाथी को वश में करेगा महाराज श्रेणिक उसे यथोचित पुरस्कार से पुरस्कृत करेंगे। हाथी को वश में करने के लिए केवल शरीर का बल ही पर्याप्त नहीं था उसके साथ में प्रबल भाग्य की भी जरूरत थी। अनेक व्यक्तियों ने अपनी-अपनी युक्ति के अनुसार हाथी को नियन्त्रित करने का प्रयत्न किया, पर वे सफल नहीं हो सके। अन्त में धन्यकुमार ने भी इस संकट की घड़ी में अपने भाग्य को परखना चाहा। वह अपने इष्टदेव का स्मरण कर हाथी के सामने गया। जैसे ही उसने हाथी को पुचकारते हुए सहलाया तो वह सूंड हिलाता हुआ उसके इस प्रकार वशीभूत हो गया कि मानो वह पूर्वभव में उसका मित्र रहा हो। चारों ओर धन्यकुमार की जय-जयकार हो गई। सारी जनता ने उस भीषण संकट से राहत की सांस ली। राजा श्रेणिक ने प्रसन्न होकर अपनी पुत्री सोमश्री का विवाह धन्यकुमार से कर दिया। अब कुमार धन्य राजा का जामाता होकर सुखपूर्वक रहने लगा। उन्हीं दिनों की घटना है कि राजगृही नगर में गोभद्र नाम का एक धनाढ्य सेठ रहता था। उसके गिरवी का व्यापार था। एक काने व्यक्ति ने सेठजी को धोखा देने के लिए एक चाल चली। वह उसकी दुकान पर आया और बोला-सेठजी! मैंने अपनी एक आंख आपके पास गिरवी रखी थी। आप अपनी रकम वापिस लेकर वह मुझे लौटा दीजिए। सेठ यह सुनकर भौचक्का-सा रह गया। उसके सामने दोहरी समस्या थी। पहली समस्या तो यह थी कि क्या कभी आंख भी गिरवी रखी जा सकती है? दूसरी समस्या थी कि जब सामने वाला व्यक्ति आंख मांग रहा है तो वह कहां से लाए? अब न्याय करे तो कौन करे? सौभाग्य से धन्यकुमार भी किसी कार्यवश उसकी दुकान पर आया हुआ था। सेठजी ने सारी स्थिति को प्रकट करते हुए कुमार से समाधान करने को कहा। धन्यकुमार ने आगन्तुक व्यक्ति की कलई खोलते हुए कहा-यदि सेठजी के पास तुम्हारी आंख गिरवी रखी हुई है तो तुम अपनी दूसरी आंख निकाल कर सेठजी को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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