Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 346
________________ ३३६ सिन्दूरप्रकर का भरण-पोषण किया, दुःख की वेला में वह सहयोगी बना। इतना सब कुछ करने पर भी तीनों भाइयों को उसका व्यवहार रास नहीं आया। वे हमेशा उसके प्रतिकूल रहे। धनाभाव के कारण उनको भी कौशाम्बी नगर छोड़ना पड़ा। मजदूरी की खोज में वे भी धनपुर आ गए। वहां एक तालाब की खुदाई हो रही थी । सारा परिवार खुदाई के कार्य में लग गया। धन्यकुमार अभी तक अपने परिवार के लिए अज्ञात था । एक दिन वह खुदाई का कार्य देखने के लिए तालाब पर गया। उसने दूसरे दूसरे मजदूरों के साथ अपने माता-पिता आदि को भी खुदाई करते देखा। उसने माता-पिता सहित परिवार के सभी सदस्यों को पहचान लिया। उनकी इस दयनीय अवस्था से कुमार का मन द्रवित हो गया। वह उनको अपने घर ले गया। फिर उसने अपनी उदारता का परिचय दिया। अपनी सज्जनता की खुशबू बिखेरते हुए उसने भाइयों सहित सारे परिवार को अपने पास रख लिया। वह नहीं चाहता था कि उसके भाई दरिद्रता का जीवन जीएं। इसलिए उसने उदारमना होकर पांच सौ गांवों की जागीर भी उनको सौंप दी। सज्जनता का परिणाम आदि से अन्त तक मधुर और सुखद होता है। यही कारण था कि धन्यकुमार के पैरों में जीवन की सुख-समृद्धि सदैव लुठती रही । अन्त में वह सब प्रकार की सुख सुविधाओं को ठुकराकर संयमपथ का अनुगामी बना और अपनी साधना से मोक्ष को प्राप्त किया। २६. दुर्जनता की फलश्रुति किसी नगर में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। वह कम पढ़ा-लिखा था, किन्तु स्वभाव से बड़ा ही सज्जन और विनम्र था। उसका प्रतिदिन का कार्य था कि सुबह-सुबह राजा के पास जाना और राजा को अपना मंगल आशीर्वाद प्रदान करना । ब्राह्मण की आशीर्वाद देने की भी एक बनी बनाई शब्दावली थी- 'धर्म की जय हो, पाप का नाश हो, किसी का भला करना अपना भला और बुरा करना अपना ही बुरा ।' इसके सिवाय उसके पास कहने को और कोई शब्द नहीं थे । प्रतिदिन वह उसी शब्दावली को राजा के सामने दोहरा देता और पुनः अपने घर लौट आता। राजा भी उसे भला आदमी जानकर उसे सम्मान देते थे, कभीकभी मुस्करा कर उससे बात कर लेते थे और उसको कुछ दे भी देते थे। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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