Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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३४०
सिन्दूरप्रकर
का यह भी विचित्र खेल है कि दुर्जन व्यक्ति कभी अपने मंसूबे में सफल नहीं होता ।
सारा घटनाप्रसंग राजा तक पहुंचा। राजा को पूरा विश्वास हो गया कि यह सब काली करतूत पुरोहितजी की थी। उसी के कारण उसने अपना अनिष्ट किया, पर वह ब्राह्मण का कुछ नहीं बिगाड़ सका। उसने ही मुझे बरगलाया, गुमराह किया । बेचारा ब्राह्मण निर्दोष प्रमाणित हुआ। राजा ने सारी सचाई जानकर पुरोहितजी को कड़ा दंड देते हुए उसे अपने राज्य से निष्कासित कर दिया और ब्राह्मण को राजपुरोहित के पद पर अभिषिक्त कर दिया। सर्वत्र दुर्जनता की हार और सज्जनता की विजय होती है।
२७. डाकू से संन्यासी
महर्षि वाल्मीकि आदिकवि थे। उन्होंने संस्कृत भाषा में रामायण की रचना कर एक नवीन और अपूर्व कार्य किया। भारतीय जनमानस में रामायण के प्रति सहज ही एक प्रगाढ़ श्रद्धा है। वह अपने आप में अद्वितीय हैं। उस स्थिति में उसके रचनाकार का नाम कैसे विस्मृत किया जा सकता है ?
में
आदिकवि वाल्मीकि का मूल नाम अग्निदत्त शर्मा था। वह बचपन में रत्नाकर नाम से अधिक जाना जाता था । उसका जन्म ब्राह्मणकुल हुआ, किन्तु अधम पुरुषों के संसर्ग से उसका आचरण और व्यवहार भी वैसा ही हो गया। उसके परिणामस्वरूप उसने किसी शूद्रकन्या से विवाह कर लिया। उसके घर की आर्थिक स्थिति कमजोर थी, परिवार का भरण-पोषण करना कठिन था। उसके लिए रत्नाकर ने अनैतिक और अशुद्ध साधनों से अर्थ का अर्जन करना प्रारम्भ कर दिया। वह राहगीरों को लूटता-खसोटता था और किसी के कुछ न देने पर उसका प्राणान्त भी कर देता था। जो भी पथिक उसके आवास के निकट के जंगल से होकर गुजरता, उसे रत्नाकर के हाथों चढ़ना ही होता था। कोई उससे बच नहीं सकता था। इस उत्पात के कारण धीरे-धीरे लोगों के मन में आतंक व्याप्त हो गया। आने-जाने वालों के लिए वह मार्ग एक प्रकार से बन्द हो गया। यदि कोई भूला भटका अथवा अपरिचित व्यक्ति उस मार्ग में आ भी जाता तो वह निष्प्रयोजन रत्नाकर के हाथों लूटा जाता
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