Book Title: Sindurprakar
Author(s): Somprabhacharya, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati
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उद्बोधक कथाएं
३२३ हुए उस व्यक्ति को लाने को कहा। अनुचर उसके घर पहुंचे और उसको लेकर वे राजा के समक्ष उपस्थित हुए। राजा ने उस व्यक्ति से पूछा-तुम कौन हो?
राजन् ! मैं एक सेठ का पुत्र हूं। लोग मुझे मम्मण के नाम से जानते हैं। ___राजा ने पुनः पूछा-अरे! इतनी रात बीत जाने पर और मौसम की प्रतिकूलता होने पर भी तुम एकाकी नदी के बर्फीले पानी में खड़े-खड़े इतना श्रम कर रहे हो?
हां, महाराज। क्या कोई आर्थिक तंगी है।
नहीं, महाराज! मेरे पास व्यापार के अनेक साधन हैं, विविध दिशाओं में मेरा व्यापार फैला हुआ है। कृषि का कार्य भी है।
राजा ने पुनः प्रश्न करते हुए पूछा-यदि तुम्हारे पास इतना व्यापार है तो फिर नदी में खड़े रहकर इतना अधिक कष्ट क्यों उठाते हो?
मम्मण ने कहा-राजन्! यह कष्ट मेरे लिए कष्ट नहीं है। मेरा शरीर ऐसा कष्ट सहने में सक्षम है। वस्तुस्थिति यह है कि वर्षाकाल में अन्य व्यापार बन्द हो जाते हैं। इस ऋतु में काठ की भारी कीमत हो जाती है, इसलिए मैं नदी में बहते हुए काष्ठों को निकाल कर इकट्ठा कर लेता हूं। फिर उनको बेचकर मोटी रकम कमा लेता हूं।
अरे मम्मण! रोटी, कपड़ा, मकान आदि जीवननिर्वाह की अत्यन्त अपेक्षाएं हैं। उनके बिना जीवन चल नहीं सकता। वे अपेक्षाएं तो तुम्हारे व्यापार से ही पूर्ण हो सकती हैं, फिर तुम रात-दिन व्यर्थ कष्टसाध्य श्रम करते हो, यह मेरी समझ में नहीं आता, राजा ने जिज्ञासा के स्वरों में पूछा।
महाराज! मेरे पास एक बैल है। दूसरा बैल नहीं है। मुझे उसकी जोड़ी तैयार करनी है। उसे पाने के लिए ही मैं रात-दिन परिश्रम करता हूं। ___ अरे! अपनी वृषभशाला में बैलों की क्या कमी है? तुम्हें जो भी बैल पसन्द आए, उसे वहां से ले लो, यह कहकर राजा ने अपने अनुचरों को वृषभशाला दिखाने का निर्देश दिया।
अनुचर सेठ को लेकर वृषभशाला पहुंचे। मम्मण ने पूरी वृषभशाला का निरीक्षण किया। उसने अनेक नस्लों के भांति-भांति के बैल देखे, पर
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