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सिद्ध आवक ही
निकाल -
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अथ प्राचार्य नक्षम,
दर्शनजानचाग्निमंयुनो ममनातिगः ।
प्रानःप्रश्नमंहश्चात्र गुमः म्यान् चांतिनिष्ठितः ॥ ४ ॥ अर्थ-जा मन्यदर्शन मन्यन्नान सम्यक् नात्रि में यात, ममता में रहित, विद्वान् . प्रश्न को महन करने वाला-प्रश्न सुनकर घबढाने वाला नहीं है. क्षमा युक्त- कोध नि है. यह जिन शान्य में गुरुश्राचार्य माना गया है।
प्रय मंडालक्षाम.
निर्मलं पृथुलं घंटानारिकानाग्णान्वितम् । प्रलंत्रपुष्पमालाढ्यं चतुर्दाकुंभमंयुतम् ॥ ५॥ भेरीपटहकमालतालमादनानम्वनः ।
श्रीकुलीनत्रीगीताव्यं मंडपं कारयेद् बुधः ॥६॥ अर्थ-मडल जिस में मांटा जाय वह मदप विद्वान् पुरुष को एसा बनवाना चाहिये जो निर्मलबच्छ हो, संकुचित न हो-पर्याप्त बडा हो, घटा पनाका तोरणाम युक्त हो, बडी २ पुष्प मालाग्रा से पूर्ण
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मूलपान में इसका अर्थ 'प्रश्न गहित उभर र नानने वाला ऐगा किया गया है। इसका निर्मन नंदीचा' म यरू किया गया है। यहा पर चदौमा का वानसई शा नहीं 1नु मंगल पर मेरा होना यावश्या।