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सिद्ध का
महल HILA
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(१२) मूलीच्छेद हुआ कोका, बन्ध-उदय-सत्ता न रही, अन्याकार-ग्रहण का कारण रहा न तव, इससे कुछ हीन्यून, चरम-तनु-पतिमाके सम रुचिराकृति ही रह जाता और अमूर्तिक वह सिद्धात्मा, निर्विकार-पद को पाता।
(१३) क्षुधा-तृपा-श्वासादिकामज्वर, जरा मरण के दुःखों का, इष्ट वियोग-प्रमोह आपदा,-दिकके भारी कष्टोंका, जन्महेतु जो, उस भवके क्षय, से उत्पन्न सिद्ध सुखका, कर सकता परिमाण कौन है ? लेश नहीं जिसमें दुःखका ।
(१४) सिद्ध हुआ निज उपादानसे, खुद अतिशयको प्राप्त हुआ, वाधारहित, विशाल, इन्द्रियों-के विषयोंसे रिक्त हुआ। बढ़ता और न घटता जो है, प्रतिपक्षीसे रहित सदा, उपमारहित अन्य द्रव्योंकी, नहीं अपेक्षा जिसे कदा॥
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