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(सिद्ध धाक ही मंडल विधान) -
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(२१), कारण, उनका जो स्वरूप है, वही रूप सब अपना है। उसही तरह सु विकसित होता, इसमें लेश न कहना है । उनके चिन्तन वन्दन से निज, रूप सामने आता है, भूली निज निधिका दर्शन यों, माप्ति प्रेम उपजाता है।
(२२) इससे सिद्ध भक्ति है सच्ची, जननी सब कल्याणों की, श्रेयो मार्ग सुलभ करती, वन हेतु कुशल परिणामों की, कही “सिद्धि सोपान" इसीसे, प्रौढ़ सुधीजन अपनाते, पूज्यपादकी सिद्धभक्ति लख, युग मुमुक्षु अति होते ॥
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