Book Title: Siddhachakra Mandal Vidhan
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 162
________________ बन्दसद्ध टाहत मंडलाहियाना D २४८ गाण के विरुद्ध, महान्सुखमें निमग्न तेजोरूप सिद्ध भगवान् आप जयवंत रहें ॥६॥ विभिन्नतपश्चरणोके द्वारा भूपित हो चुका है योग जिनका, समाप्त हो गई हैं बाधाएँ जिनकी, बीतगोक, रोगरहित, महान्दुःखस्वरूप दावानलके लिये मेघके समान, महासुखमें निमग्न तेजोरूप सिद्धदेव आप जयवंत रहें ॥ ७॥ शास्वतिक कालकलामें निवास करनेवाले संसाररूप समुद्रको मुखादेनेवाले शुद्ध, प्रकाशयुक्त, मन और इन्द्रियोसे रहित, विशुद्ध महानसुखमें निमग्न तेजोरूप सिद्ध भगवन् आप जयवंत रहें ॥ ८ ॥ अनादि और अनन्त पदमें स्थित है रूप-आकृति जिनकी, रसादिसरहित, समस्त अन्यपदार्थोसे पृथग्भूत, सब पढार्थीको विशेषरूपसे प्रकाशित करनेवाले अथवा सम्पूर्ण विभावभावों या दोपोंको कम्पितकर देनेवाले जरा जीर्णता-वृद्धत्व आदि अवस्थाओंका दलन करनेवाले, विशुद्ध महासुखमें निमग्न तेजोरूप सिद्धदेव आप जयवन्त रहे ॥॥ हे महेश-महान् ऐश्वर्ययुक्त, हे मुशकर-समीचीन कल्याणके कर्ता, हे निर्जर-कभी जीर्ण न होनेवाले, हे शक्र-अनन्तशक्ति युक्त, हे मुनीन्द्र-मुनियोके नाथ, हे मुचन्द्र-भले प्रकार सबको चन्द्रमाके समान पान्हादित करनेवाले, हे सुभास्करचक्र-कोटिसूर्यसमान तेजके बारक, हे पराच्युतभाव-उत्कृष्ट और कभी भी च्युत न होनेवाले है भाव जिनके, हे अत्यन्तशीतल ज्ञानस्वरूप, महान् सुखमे निमग्न तेजोरूप सिद्धपरमेष्टिन् आप जयवत रहे ॥ १०॥ इस तरह आत्मरससे पूर्णभावरूप, पुनरुत्पत्तिसे रहित, प्राप्त कर लिया है कल्याणरूप समीचीन सार जिन्होंने सम्पूर्ण मनुष्योंके द्वारा पूज्य तथा शुभचन्द्रादिकेद्वारा सेव्य ऐसे सिद्ध परमेष्ठियोके समूहका जो भव्य स्मरण करता है वह समस्त अभ्युदयोको भोगकर अन्तमे मुक्तिरूप समीचीन शान्तिको भी प्राप्त किया करता है ॥११॥ NAGAR PORT ' . . ट : "post---

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