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= (सिद्ध झाक ही माल विधान
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आत्माको, आत्म-स्वरूपसे, आत्मामें प्रतिक्षण ध्याताहुआ सातिशय वह आत्मा यों, सत्य-स्वयम्भू-पद पाता। वीतराग-अईत्-परमेष्ठी-आप्त-सार्व-जिन कहलाता, परंज्योति-सर्वज्ञ-कृती-प्रभु-जीवन्मुक्त नाम पाता।
(१०) शेप निगड-सम अन्य प्रकृतियाँ फिर छेदता हुआ सारी, आयु-वेदनी-नाम-गोत्र हैं मूल प्रकृतियाँ जो भारी। उन अनन्तग्-बोध-वीर्य-मुख-सहित शेष क्षायिक गुणसअव्यावाध-अगुरुलघुसे औ मूक्ष्मपना-अवगाहनसे-॥
(११) शोभमान होता, तैसे ही अन्य गुणोंके समुदयसेप्रभवित हुए उत्तरोत्तर जो-कर्मप्रकृतिक संक्षयसे । क्षणमें ऊर्ध्वगमन-स्वभावसे, शुद्ध-कर्ममलहीन हुआ, जा वसता है अग्रधाममें, निरुपद्रव-स्वाधीन हुआ।
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