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(सिद्ध चालक
हीं मंडल विधान -
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माधार
SHAYARI
नहिं अभावमय सिद्धि इष्ट है, नहिं निजगुणविनाशवाली, सत् का कभी नाश नहिं होता, रहता गुणी न गुण खाली । जिनकी ऐसी सिद्धि न उनका, तप विधान कुछ बनता है, आत्मनाश निजगुणविनाशका, कौन यत्न बुध करता है।
(४) अस्तु: अनादिवद्ध आत्मा है, स्वकृत-कर्म-फलका भोगी, कर्मवन्ध-फलभोग-नाशसे, होता मुक्ति-रमा-योगी। ज्ञाता, द्रष्टा, निजतनु-परिमित, संकोचेतर-धर्मा है, स्वगुण-युक्त रहता है, हरदम धौव्योत्पत्ति-व्ययात्मा है ।
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इस सिद्धान्त-मान्यताके विन साध्य-सिद्धि नहिं घटती हैस्वात्मरूप की लब्धि न होती, नहिं व्रत-चर्या बनती है। बन्ध-मोक्ष-फलकी कथनी सब कथनमात्र रह जाती है, अन्त न आता भव-भ्रमण का, सत्य-शान्ति नहिं मिलती है।
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