Book Title: Shravakachar Sangraha Part 1
Author(s): Hiralal Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 19
________________ श्रावकाचार-संग्रह विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते ॥ १० इदमेवेदशं चैव तत्त्वं नान्यन्न चान्यथा । इत्यकम्पाऽऽयसाम्भोवत्सन्मार्गेऽसंशया रुचिः ॥११ कर्मपरवशे सान्ते दुःखैरन्तरितोदये । पापबीजे सुखेऽनास्था श्रद्धानाकांक्षणा स्मृता ॥१२ स्वभावतोऽशची काये रत्नत्रयपवित्रिते। निर्जगप्सा गुणप्रीतिर्मता निविचिकित्सिता ॥१३ कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः । असम्पक्तिरनुत्कोत्तिरमूढा दृष्टि रुच्यते ।।१४ शुद्ध शुद्धस्य मार्गस्य बालाशक्तजनाश्रयाम् । वाच्यतां यत्प्रमार्जन्ति तद्वदन्त्युपगृहनम् ॥१५ दर्शनाच्चरणाद्वापि चलतां धर्मवत्सलैः । प्रत्यवस्थापन प्राज्ञः स्थितीकरणमच्यते ।।१६ स्वयथ्यान् प्रति सद्भावसनाथाऽपेतकैतवा । प्रतिपत्तिर्यथायोग्यं वात्सल्यमभिलप्यते ।।१७ अज्ञानतिमिरव्याप्तिमपाकृत्य यथायथम् । जिनशासनमाहात्म्यप्रकाश: स्यात्प्रभावना ।।१८ तावदञ्जनचौरोऽङ्गे ततोऽनन्तमती स्मृता । उद्दायनस्तृतीयेऽपि तुरीये रेवती मता ॥१९ मानादिक प्रमाणोंसे जिसमें कोई विरोध नहीं आता हो, जो प्रयोजन भूत तत्त्वोंका उपदेश करता हो, सर्व प्राणियोंका हितकारक हो और कुमार्गका विनाशक हो, उसे सत्यार्थ शास्त्र या आगम कहते हैं ।। ९॥ सत्यार्थ गुरुका लक्षण- जो पंचेन्द्रियोंकी आशाके वशसे रहित हो, खेती-पशुपालन आदि आरम्भ से रहित हो, धन-धान्यादि परिग्रहसे रहित हो, ज्ञानाभ्यास, ध्यान-समाधि और तपश्चरणमें निरत हो, ऐसा तपस्वी निर्ग्रन्थ गुरु प्रशंसनीय होता है ।।१०। अब सम्यग्दर्शनके आठ अंगोंका वर्णन करते हुए सर्वप्रथम नि शंकित अंगका लक्षण कहते हैं- तत्त्व अर्थात वस्तुका स्वरूप यही ऐसा ही है. इससे भिन्न नहीं और न अन्य प्रकार से संभव है. इस प्रकार लोट निर्मित खङग् आदि पर चढे हुए पानीके सदृश सन्मार्गमें संशय-रहित अकम्प अविचल रुचि या श्रद्धाको निःशंकित अंग कहते हैं ।।११।। दूसरे नि:कांक्षित अङ्गका लक्षण-संसारका सुख कर्मके अधीन हैं, अन्त-सहित हैं, जिसका उदय दुःखोंसे अन्तरित है, अर्थात्, सुख-काल के मध्य में भी दुःखोंका उदय आता रहता हैं, और पापका बीज है, ऐसे इन्द्रियज सुख में आस्था और श्रद्धा नहीं रखना, अर्थात संसारके सुखकी आकांक्षा नहीं करना, यह निःकांक्षित अङ्ग माना गया है ।।१२।।तीसरे निविचिकित्सा अङगका लक्षण-स्वभावसे अपवित्र किन्तु रत्नत्रय के धारण क नेसे पवित्र ऐसे धार्मिक पुरुषो के मलिन शरीरको देखकर भी उसमें ग्लानि नही करना और उनके गुणोंमें प्रीति करना निर्विचि. कित्सा अङ्ग माना गया हैं |१३|| चौथे अमूढदृष्टि अंगका लक्षण-दु:खोंके कारणभूत कुमार्गमें और कुमार्ग पर स्थित पुरुष में मनसे सम्मति नहीं देना, कायसे सराहना नही करना और वचनसे प्रशंसा नही करना अमूढदृष्टि अंग कहा जाता है ।। १४ ।। पांचवे उपगुहन अंगका लक्षण-स्वयं शद्ध निर्दोष सन्मार्ग की बाल (अज्ञानी) और अशक्त जनोंके आश्रयसे होने वाली निन्दाको जो दूर करते है, उसे ज्ञानी जन उपगहन अंग कहते हैं ।।१५। छठे स्थितीकरण अंगका लक्षण - सम्यग्दर्शनसे अथवा सम्यक्-चरित्रसे चलायमान होनेवाले लोगोंका धर्मवत्सल जनोंके द्वारा पुन: अवस्थापन करनेको प्राज्ञ पुरुष स्थितीकरण अंग कहते है ॥१६॥ सातवे वात्सल्य अंगका लक्षण- अपने साधर्मी समाजके प्रति सदभावसहित, छल-कपट-रहित यथोचित स्नेहमयी प्रवृत्तिको वात्सल्य अंग कहते हैं ॥ १७॥ आठवे प्रभावना अंगका लक्षण- अज्ञानरूप अन्धकारके प्रसारके यथासंभव उपायोंके रके जिन शासनके माहात्म्यको जगतमें प्रकाशित करना प्रभावना अंग है ।। १८ ।। उपयुक्त आठ अंगोंमें से प्रथम अंग में अञ्जन चौर, दूसरे अंग में अनन्तमती, तीसरे अंगमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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