________________
रत्नकरण्डश्रावकाचार
ततो जिनेन्द्र भक्तोऽन्यो वारिषेणस्ततः परः । विष्णुश्च वज्रनामा च शेषयोर्लक्षतां गतौ ॥२० नाङ्गहीनमल छेत्तुं दर्शनं जन्मसन्ततिम् । न हि मन्त्रोऽक्षरन्यूनो निहन्ति विषवेदनाम ॥२१ आपगासागरस्नानमुच्चयः सिकताऽश्मनाम् । गिरिपातोऽग्निपातश्च लोक मूढं निगद्यते ॥२२ वरोपलिप्सयाऽऽशावान् रागद्वेषमलीमसा: । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ।।२३ सग्रन्थाऽऽ भिहिसाना संसारावर्तवतिनाम । पाषण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पाषाण्डिमोहनम् ।।२४ ज्ञानं पूजां कुलं जाति बलद्धि तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मया: ।२५ स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गविताशयः । सोऽत्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धामिविना ।।२६ यदि पापनिरोधोऽन्यसम्पदा कि प्रयोजनम् । अथ पाप स्रवोऽस्त्यन्यसम्पदा कि प्रयोजनम् । सम्यग्दर्शनसम्पन्नमपि मातङ्गदेहजम् । देवा देवं विदुभंस्मगढ ङ्गरान्तरोजसम् । श्यापि देवोऽपि देवः श्वा जायते धर्म-किल्विषात् । कापि नाम भवेदन्या सम्पद्धर्माच्छरीरिणाम् ।।२९
उद्दायन राजा - चौथे अंगमें रेवती रानी पांचवे अगमें जिनेन्द्रभक्त सेठ, छठे अंगमें वारिषेण राजकुमार, सातवे अंगमें विष्णुकुमार मुनि और आठवें अंगमे अज्रकुमारमुनि इस युगमें प्रसिद्धिको प्राप्त हुए हैं। १९-२०॥ उक्त आठ अंगोंमेंसे किसीभी अंगसे हीन सम्यग्दर्शन संसारकी परम्पराको छेदने के लिए समर्थ नहीं हैं। जैसे कि एक अक्षर से भी न्यून मंत्र विषकी वेदनाको नष्ट करने के लिए समर्थ नही होता हैं। अतः आठो अंगोंके साथ ही सम्यग्दर्शनका धारण आवश्यक है ।।२१।। अब तीन मूढ़नाओं में से पहले लोकमूढता कहते हैं-धर्म बुद्धिसे गंगादि नदियों और समुद्र में स्नान करना, वाल और पत्थरोंका ऊँचा ढेर लगाना, पर्वतसे गिरना, अग्निमें प्रवेश करना, तथा च शब्दसे सूचित इसी प्रकारके अन्य कार्य-सूर्यको अर्ध चढ़ाना, संक्रान्तिके समय तिलदान करना आदिको लोकमूढता कहा जाता है ।।२२।। दूसरी देवमूढताका लक्षण - आशा-तृष्णाके वशीभूत होकर वर पानेकी इच्छासे राग-द्वेषसे मलिन देवत्ताओंकी जी उपासनाकी जाती हैं वह देवमूढता कही जाती है ।। २३ ।। तीसरी पाषण्डिमढका लक्षण-परिग्रह, आरम्भ और हिंसासे युक्त, संसारके गोरखधन्धे रूप भंवरोंके मध्य पडे हुए पाखंण्डी लोगोंका आदर-सत्कार करना पाषण्डिसढता जानना चाहिए।२४।। अब मदोंका वर्णन किया जाता है- ज्ञान, पूजा, कुल, जाति बल, ऋद्धि, तप और शरीर, इन आठ बातोंका आश्रय लेकर अभिमान करनेको गर्व-रहित आचार्य स्मय या मद कहते है।।२५।। अभिमान यक्त चित्तवाला जो पुरुष मदसे अन्य धर्मात्मा जनोंका तिरस्कार करता हैं, व धर्मका अपमान करता है। क्योंकि धार्मिकजनोंके विना धर्म निराश्रित नहीं रह सकता हैं।। २६ ।। सम्यग्दष्टि विचारता है कि यदि पापके आस्रवका निरोध है, तो फिर मझे अन्य सम्पदासे क्या प्रयोजन है । और यदि पापका आस्रव हो रहा है, तो भी मुझे अन्य सम्पत्तिसे क्या प्रयोजन हैं ॥२७ ।। भावार्थ- पापका निरोध होनेपर ऋद्धिबल आदि सम्पदा स्वयं प्राप्त होती है. अत: उसका अहंकार करना व्यर्थ है । और जब पाप का आस्रय हो रहा है, तब प्राप्त वैभवादिका अहंकार करने पर भी उनका विनाश होगा और दुर्गतियोंमें गमन करना पङन्ना, अतः उस दशामें भी अन्य सम्पदाओंका गर्व करना व्यर्थ हैं । गणधरदेव सम्यग्दर्शनसे संयुक्त चाण्डाल-पुत्र को भी भस्म (राख) से आच्छादित और अन्तरंग में तेजसे युक्त अंगारके समान देव या आराध्य कहते हैं ।। २८ ॥ धर्म के प्रभावसे कुत्ता भी देव हो जाता हैं और पापके उदयसे देव भी कुत्ता बन जाता हैं। इसलिए जीवोंके धर्मसे अन्य और कौन सी कौन सी सम्पत्ति श्रेष्ट हो सकती? नहीं हो
अपने ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org