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श्री आवकाचार जी
अरूप हैं तथा जीव अनंत, पुद्गल अनंतानंत, धर्म एक, अधर्म एक, आकाश एक • और काल असंख्यात कालाणु हैं। इसमें विशेष बात जो समझने की है वह यह है कि जीव के विभाव परिणमन से पुद्गल परमाणु स्कन्ध रूप तथा कर्म वर्गणारूप होता है, ऐसा निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध है और छहों द्रव्य का एक क्षेत्रावगाह संयोग संबंध अनादिकाल से है। जीव में तथा पुद्गल में ही स्वभाव-विभाव रूप परिणमन करने की शक्ति है बाकी चार द्रव्य तो अपने स्वभावमय त्रिकाल शुद्ध ही हैं।
अब कहो कि यह जीव के विभाव रूप परिणमन के कारण ही तीन लोक का परिणमन चल रहा है या अपने आप चल रहा है ?
इसमें एक विशेष महत्वपूर्ण समझने की ध्यान में रखने की बात यह है कि जगत में जो अनंत जीव हैं, यह अनादि से विभाव रूप ही हैं इन्हें अपने स्वभाव का, स्वसत्ता शक्ति का पता ही नहीं है। जिन्हें अपने स्वभाव सत्ता शक्ति का पता लग जाता है वह स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। उनका संसार का जन्म-मरण का चक्र छूट जाता है। यहां जीव तत्व की शक्ति अपेक्षा बात की जा रही है कि जीव की शक्ति से ही तीन लोक ज्योतिर्मय प्रकाशित हो रहा है।
ऐसा जीव तत्व निज शुद्धात्मा जो देवों का देव अर्थात् सौ इन्द्र, देवता गण जिसकी सेवा नमस्कार वंदना करते हैं। जब केवलज्ञान होता है तो सौ इन्द्र और तीन लोक से वन्दनीय तीर्थंकर परमात्मा होते हैं और जो जीव जाग जाता है, जिसे अपने सत्ता स्वरूप का बोध हो जाता है, उसकी भी वन्दना सेवा भक्ति तीन लोक और देवता भी करते हैं; तो ऐसे जीव तत्व निज शुद्धात्म स्वरूप को मैं नमस्कार करता हूँ क्योंकि यही मुझे इष्ट और प्रयोजनीय है।
यहाँ कोई प्रश्न करे कि यह तो श्री तारण स्वामी ने लौकिक व्यवहार के विरुद्ध कार्य किया क्योंकि जिस देव, गुरू, शास्त्र के माध्यम से उन्हें अपने सत्ता स्वरूप का बोध हुआ था, पहले उन्हें नमस्कार करना चाहिये फिर जो अपना इष्ट था उसकी साधना आराधना करते ?
उसका समाधान है कि जैसे कोई पथिक अपने स्वस्थान का मार्ग भूलकर भटक रहा हो और कोई सज्जन पुरुष उसे उसके स्थान का मार्ग बता दे और वह पथिक उस मार्ग पर चलकर अपने गन्तव्य स्थान को पहुँच जावे तो वह क्या करता है ? सबसे पहले तो वह स्वस्थान के लक्ष्य और मार्ग का स्मरण रखता है और सावधानी पूर्वक अपने गन्तव्य की ओर चलता है। कभी-कभी मार्ग बताने वाले का
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गाथा-१
भी स्मरण कर लेता है। उसका बहुमान-सम्मान करता है परन्तु मुख्यता तो अपने लक्ष्य की ही रखता है। इसी प्रकार मुक्तिमार्ग के पथिक साधक अपने लक्ष्य, अपने इष्ट का ही ध्यान रखते हैं और इस मार्ग पर चलने की सावधानी निरन्तर वर्तते हैं। मुक्ति का मार्ग क्या है ? इसे तत्वार्थ सूत्र में आचार्य उमास्वामी ने बताया है- जो जैन दर्शन का मूल आधार है- सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग: । निज शुद्धात्म तत्व की अनुभूति सम्यक्दर्शन, निज सत्ता शक्ति का ज्ञान सम्यक्ज्ञान और निज स्वभाव में रमणता, स्थिरता ही सम्यक्चारित्र है और यही मुक्ति का मार्ग है; तो जो अध्यात्म का साधक है जिसे अपने शुद्धात्म तत्व की अनुभूति हो गई है, वह तो अपने इष्ट निज शुद्धात्म स्वरूप की ही साधना-आराधना वन्दना भक्ति करेगा । उसका लक्ष्य और इष्ट तो वही एक है और उसी के निरन्तर स्मरण ध्यान करने से वह अपने गन्तव्य को प्राप्त करेगा; इसलिये पहले तो वह अपने इष्ट का ही स्मरण वन्दन नमस्कार करेगा। श्री तारण स्वामी ने व्यवहार की अवहेलना नहीं की, जिनके माध्यम से अपने लक्ष्य, इष्ट को पाया उनका भी स्मरण किया है। वन्दना नमस्कार किया है, हमेशा बहुमान किया है लेकिन अपना लक्ष्य निश्चय रत्नत्रयमयी निज शुद्धात्मा ही रखा है। आगे छटवीं गाथा में भगवान महावीर को नमस्कार किया है। सातवीं गाथा में समस्त केवली और अनन्त सिद्ध भगवंतों को नमस्कार किया है। उनका लक्ष्य निश्चय प्रधान निज शुद्धात्मा ही रहा है और इसी अपेक्षा से निश्चय प्रधान रखते हुए उन्होंने इस ग्रन्थ में कथन किया है। अध्यात्म साधक, समस्त आचार्य परम्परा श्री कुन्दकुन्द देव, योगीन्दुदेव, अमृतचन्द्राचार्य आदि के अनुसार ही वह उस मार्ग पर चले हैं और वैसा ही कथन किया है क्योंकि तारण स्वामी को ग्यारह वर्ष की अवस्था निज शुद्धात्मानुभूति, निश्चय सम्यक्दर्शन हो गया था और इसी क्रम में बढ़ते हुए वीतरागी मार्ग पर चले। बीस वर्ष की आयु में ब्रह्मचर्य व्रत और तीस वर्ष की आयु में ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की और आगे चलकर छठे - सातवें गुणस्थानवर्ती वीतरागी साधु पद और आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए।
इसी क्रम में यह चौदह ग्रन्थों की रचना की जिसमें स्व का लक्ष्य प्रमुख रखा है। साधक कैसा होता है, साधक के मार्ग में क्या और कैसी बाधायें आती हैं, साधना का क्रम और मार्ग क्या है ? यह स्वयं के जीवन में अनुभव करते हुए अनुभव प्रमाण कथन किया है। इस श्रावकाचार ग्रन्थ में आगे बड़ी अपूर्व बातें आयेंगी, जो आगम शैली के ग्रन्थों में कहीं नहीं मिलेंगी ।
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