Book Title: Shatkhandagama Pustak 01 Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay AmravatiPage 12
________________ ५. ऐसे ग्रंथोंका सम्पादन प्रकाशन बारबार नहीं होता, अतएव इस कार्य में कोई ऐसी उतावली न की जाय जिससे ग्रंथकी प्रामाणिकता व शुद्धतामें त्रुटि पड़े। ६. उक्त कार्यमें जितना हो सके उतना अन्य विद्वानोंका सहयोग प्राप्त किया जाय । इन निर्णयोंको सन्मुख रखकर मैंने सम्पादन कार्यकी व्यवस्थाका प्रयत्न किया। मेरे पास तो अपने कालेजके दैनिक कर्तव्यसे तथा गृहस्थीकी अनेक चिन्ताओं और विघ्नबाधाओंसे बचा हुआ ही समय था, जिसके कारण कार्य बहुत ही मन्दगतिसे चल सकता था । अतएव एक सहायक स्थायी रूपसे रख लेनेकी आवश्यकता प्रतीत हुई । सन् १९३५ में बीनानिवासी पं. वंशीधरजी व्याकरणाचार्यको मैंने बुला लिया, किन्तु लगभग एक माह कार्य करनेके पश्चात् ही कुछ गार्हस्थिक आवश्यकताके कारण उन्हें कार्य छोड़कर चले जाना पड़ा। तत्पश्चात् साढूमल (झांसी) के निवासी पं. हीरालालजी शास्त्री न्यायतीर्थको बुलानेकी बात हुई । वे प्रथम तीन वर्ष उज्जैनमें रायबहादुर सेठ लालचन्द्रजीके यहां रहते हुए ही कार्य करते रहे। किन्तु गत जनवरीसे वे यहां बुला लिये गये और तबसे वे इस कार्यमें मेरी सहायता कर रहे हैं। उसी समयसे बीना निवासी पं. फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीकी भी नियुक्ति करली गई है और वे भी अब इसी कार्यमें मेरे साथ तत्परतासे संलग्न हैं । संशोधन कार्यमें यथावसर अन्य विद्वानोंका भी परामर्श लिया गया है। प्राकृतपाठ संशोधनसम्बन्धी नियम हमने प्रेस कापीके दो सौ पृष्ठ राजाराम कालेज कोल्हापुरके अर्धमागधीके प्रोफेसर, हमारे सहयोगी व अनेक प्राकृत ग्रंथोंका अत्यन्त कुशलतासे सम्पादन करनेवाले डाक्टर ए. एन्. उपाध्येके साथ पढ़कर निश्चित किये। तथा अनुवादके संशोधनमें जैनधर्मके प्रकाण्ड विद्वान् सि. शा. पं. देवकीनन्दनजीका भी समय समय पर साहाय्य लिया गया। इन दोनों सहयोगियोंकी इस निर्व्याज सहायताका मुझ पर बड़ा अनुग्रह है। शेष समस्त सम्पादन, प्रूफ शोधनादि कार्य मेरे स्थायी सहयोगी पं. हीरालालजी शास्त्री व पं. फूलचन्द्रजी शास्त्रीके निरन्तर साहाय्यसे हुआ है, जिसके लिये मैं उन सबका बहुत कृतज्ञ हूं। यदि इस कृतिमें कुछ अछाई व सौन्दर्य हो तो वह सब इसी सहयोगका ही सुफल है । ___ अब जिनके पूर्व परिश्रम, सहायता और सहयोगसे यह कार्य सम्पन्न हो रहा है उनका हम उपकार मानते हैं। कालके दोषसे कहो या समाजके प्रमादसे, इन सिद्धान्त ग्रंथोंका पठन पाठन चिरकालसे विच्छिन्न हो गया था। ऐसी अवस्थामें भी एकमात्र अवशिष्ट प्रतिकी शताब्दियोतक सावधानीसे रक्षा करनेवाले मूडविद्रीके सम्मान्य भट्टारकजी हमारे महान् उपकारी हुए हैं। गत पचास वर्षों में इन ग्रंथोंको प्रकाशमें लानेका महान् प्रयत्न करनेवाले स्व. सेठ माणिकचन्दजी जवेरी, बम्बई, मूलचन्दजी सोनी, अजमेर, व स्व. सेठ हीराचन्द नेमीचन्दजी सोलापुरके हम अत्यन्त कृतज्ञ हैं। यह स्व. सेठ हीराचन्दजीके ही १ मेरी गृहिणी सन् १९२७ से हृद्रोगसे ग्रसित हो गई थी। अनेक औषधि उपचार करने पर भी उसका यह रोग हटाया नहीं जा सका, किन्तु धीरे धीरे बढता ही गया | बहुतवार मरणप्राय अवस्थामें बड़े मंहगे इलाजोंके निमित्तसे प्राणरक्षा की गई। इसीप्रकार ग्यारह वर्ष तक उसकी जीवनयात्रा चलाई। अन्ततः सन् १९३८ के दिसम्बर मासमें उसका चिरवियोग होगया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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