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श्री उत्तराध्ययनसूत्रनी सज्झायो.
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दसारणि मृगका लिजरे रे । गंगातीर मराल ॥ कर्म संयोगे आपण अवतर्या रे । काशी देश चंगाल ॥ चतुर० ॥ ३ ॥ देवलोक दोय हुवा देवता रे । बठे जववियोग ॥ एम विचार कहे नर राजीयो रे। हिव एक एक विणुयोग ॥ चतुर० ॥ ४ ॥ कर्यु नियाएं चित्र कहे इस रे । तिणिज जु अवतार । जूप कहे ए रुरुं कर्यु रे । जिए लाधी जोग प्रकार ॥ चतुर० ॥ ५ ॥ चित्र कहे में रिद्धि पामी तजी रे | सुलि आगम संयम काज ॥ मुनिवर टालिन आगम कोइ जणे रे । ए मर्यादा जिनराज ॥ चतुर० ॥ ६ ॥ राय जणे परणों अंते उरी रे | व्ये देश पंचालह राज || नाटक गीततणा रस जोवतां रे । नर जनम सफल करो श्राज ॥ चतुर० ॥७॥ पूरव प्रीते कृषि वलतुं कहे रे । नाटक गीत असार ॥ जोग विषय वसा दुख दिये रे । ढंको काम विकार ॥ चतुर ॥ ८ ॥ सीह हरे मृगने मृग देखता रे । जिम चिकियो हरे सींचाए ॥ तिम परिवार सहुको देखतां रे । जम संघरे प्राण ॥ चतुर० ॥ ९ ॥ कीधी क
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