Book Title: Sazzay Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Gokaldas Mangadas Shah
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२४७
श्री किरिया स्थानक सज्झाय. पढम अंगें कर्म टालो मुणिवरा ॥७॥ जे न कह्यो रे पातक किरिया थानकें । ते कहिस्युं रे मिथ्याती नर जे बके ॥ निन्न प्रज्ञारे बंदाशीला दिहिया। रुचि अब्जघारे पाप श्रुत ते संठिया ॥-नूमादि कंप निमित्त नन तनु सरह लक्षण व्यंजणं । थिय पुरुष हय गय गोण कुक्कुम मिंढ तित्तर लरकणं ॥ इत्यादि लकण सुजग पुर्नग गर्न मोहण कारगं । आकर्षणी प्रमुखादि विद्या करवि व्ये असनादिकं ॥२॥ निदाचर रे अनारिज सरिखा थ।मृत्यु पामीरे कइ विसियादिक गति लही॥ चषि तेहथी रे मूक बधिर पदवी लहे। अंध था रे पूरवकृत ते मुख सहे ॥-ते अंध देखत साथे लेइ सजनादिकनी वृत्ति करे। जीवघात अलिय अदत्त परिग्रह पापथानक आचरे ॥ कुल अधम पामी पाप बहु करि वैर तेणे अर्जिए। करिकाल तेहथी नरग पामे सुख लेसे वार्जिए ॥ २ए ॥ अनारिज रे ए थानक पहिलो कह्यो। हिव बीजो रे धर्म पद ते सदह्यो । दिशि विदिसेरे मणुया आरिज जाणिये । कुल यादि रे अंते पुरूप वखाणिये॥-क्षेत्रादि परिग्रह

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