Book Title: Sazzay Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Gokaldas Mangadas Shah
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श्री किरिया स्थानक सज्झाय.
नहु त्राण, तासु वधें हुये, पुण कुंतादिक ने दिये ए । विवेक विकल ति बाल, त्रसह विराधन, नरके फल ते वेदिये ए ॥ ११ ॥ थावर वणसई जाति, इक्कम आए, स्वजनादिक कारण विनाए । बेदे बेदावे आप, वलि अनुमोदए, मूढ वैर जागी जनाए ॥ कहादिक वनमा हि, पर्व्वत उपरे, तृण एकट करि बालिये ए । त्रिविध त्रिविध प्रकारि, कर्म्म इस्या करे, नरके ते उबालिये ॥ १२ ॥ त्रीजो हिंसा दंग, मुऊने इ हणियो, हणस्ये अथवा एह दए । सजनादिकनो वैर, जाणिदणाव, त्रस थावर रोसि घणेए ॥ सपदिकनो घात, परनो की धोए, अनुमोदे रंगे धरीए । इणिपरे की धुं पाप, नरके जोगवे, एकलको कार्य करी ॥ १३ ॥ तुरिय कम्हा दंग, कहादिक विषें, मृग जाणी इषु मेव्हिये ए । अंतर तित्तर यदि, पंखिय जातीय, अथ पशु प्राण तिरे व्हियेए ॥ एह
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कम्हा दंग, त्रस याश्रित थयो, थावरनो दिव मने धरोए । खेत्री करस माहि, पेठो चिंतवे, धान मा

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