Book Title: Sazzay Sangraha Part 01
Author(s): Sagarchandrasuri
Publisher: Gokaldas Mangadas Shah

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Page 241
________________ २२८ श्री आगम सद्दहणा छत्रीसी. ॥ १३ ॥ आ ॥ सव्व लोय पुख्खरवरदी। सिक बुद्ध थुइ अंत ॥ श्रावकने माने नही । ते लव माहे जमंत ॥ १४ ॥ आ० ॥ जिण कारण जिणवर कह्यो । सपमिकमणो धर्म ॥ साधु श्रावक ने सारिखो। अंतर विरति ए मर्म ॥ १५ ॥ आ॥ श्री अनुयोगें जाषिया । आवश्यक उपधान ॥ साधु श्रावकनें एक विधं । ते माने न अज्ञान ॥ १६ ॥ आ ॥ देसत सर्वत बिहुं परें । पोसहनो उच्चार ॥ देसत जल कलपे कह्यो । सर्वत पण अणहार ॥ १७ ॥ आ० ॥ पछे प्रथम दिन गणि कहे । सत्तरिने पंचास ॥ तेय वचन जे नहु करे । तसु नही जिनमत वास ॥१॥ आ ॥ एम अंगे चोथे कह्यो । पजुसण म म बंम ॥ वीसां पजुसण तण।। कूमी कुमति म मंग ॥ १५॥ आ॥ ( ढाल:-सुफ संवेगी किरियाधारी, पण ए देशीमां. ) होश मंगल ने वश मंगल ए। पाठ सुन्नि जग सार रे ॥ अरथ एक पद दोयनो जाप्यो । अंतर नहिय लगार रे ॥ २० ॥ सुणोश्ने वचन जिनजाषित साचा। कुमत कदाग्रह टालो

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